कहानीलघुकथा
*आज़ादी अम्मा*
कस्बे में रामा अम्मा को कौन नहीं जानता। उनके ससुर, पति व बेटा देश के लिए शहीद हो गए। किन्तु उनका देशभक्ति का जज़्बा व जुनून कम नहीं हुआ। उनका जन्म भी 15 अगस्त 1947 के शुभ दिन ही हुआ था।
लोग उन्हें आज़ादी अम्मा के नाम से पुकारने लगे।
अम्मा स्वाधीनता दिवस के लिए प्रति वर्ष नई साड़ी खरीदती है। घर को खूब सजाती और सबको लड्डू बाटती है।
आज भी वह सुहागिन सी सजधज कर बड़ा सा झंडा थामे चल पड़ी झंडावंदन के लिए।
छोटे छोटे झंडे बच्चों को देती जा रही है। उनको देख अन्य महिलाएँ भी निकल पड़ती है।
प्रतिवर्ष झंडावंदन अम्मा के हाथों ही होता आया है। इस बार वह प्रस्ताव रखती है कि बारी बारी से सभी महिलाओं को यह सम्मान मिले। किन्तु ध्वजारोहण के बाद राष्ट्रगान अम्मा ही अपनी बुलन्द आवाज़ में गाती है। भारत माता की जय पूरे कस्बे में गूंजती है।
अम्मा भाषण देना नहीं भूलती, " देश अपना है तो देश के लिए अपने बेटों को सेना में भेजना हमारा कर्तव्य है। "
सभी को हिदायत देना भी नहीं भूलती, " झंडों को अपने घरों पर लगा कर इनका सम्मान करना है, फेंकना हरगिज़ नहीं।"
गाँव से सेना में गए बेटे जब भी आते हैं, सबसे पहले आज़ादी अम्मा से मिलते हैं।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर