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रिश्ते बन भी सकते हैं - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

रिश्ते बन भी सकते हैं

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रिश्ते बन भी सकते हैं

" माँ माँ ! बताओ ना मैं किसको राखी बाँधूगी।"
स्कूल प्रोजेक्ट के लिए राखियाँ बनाती शुभी बार बार पूछ रही है।
अतीत में खोई मुक्ता ख़ुद कितनी मजबूर हो गई थी पति के फ़ैसले के आगे। उसे छः माह के बेटे कुणाल को निःसन्तान ननद को सौपना पड़ा था। सासू माँ ने दिलासा दी थी, " बहु ! चिंता मत करो, देखना बहन बेटी की दुआओं से तुम्हारी गोद फ़िर भर जाएगी। " लेकिन मुक्ता की गोद फ़िर कभी नहीं भरी।
ननद रानी की शर्त थी, बच्चे को सच्चाई कोई नहीं बताएगा। और उसकी आँखों का तारा कुणाल से कर्ण बन गया।
नन्दोई जी नया जॉब मिलने से सपरिवार लन्दन जा बसे।
अपना दिल लगाने के लिए मुक्ता भोग का प्रसाद बनाने लगी। पूजा करते बोली,
" शुभी ! तुम भी अपनी नई फ्रॉक पहनकर आ जाओ। क्यूँ न हम कान्हा जी को भाई बना लें ? "
शुभी राखियाँ लेकर आती है, " हाँ मम्मा ! आपका भी कोई भैया नहीं है। कान्हा जी तो सबके भाई हैं। "
तभी सजी धजी महरी राधा अपने दोनों बेटों के साथ काम निपटाने आ जाती है,
" आँटी जी ! ये छुटकू तो ज़िद पर ही अड़ गया है कि मैं भी आज राखी बन्धवाऊंगा। अब बहन कहाँ से लाऊँ इसके लिए ? "
शुभी खुशी से ताली बजाती है, " अब तो मैं छुटकू को भी राखी बाँधूँगी। ये भी कान्हा जी जैसा भाई बन सकता है न। "
मुक्ता को राधा की बात याद आ जाती है,
" आँटी जी ! शुभी बेबी मेरे छुटकू को कितना प्यार करती है। इसे आप ही रख लो। आप तो इसे अच्छा पढ़ा लिखा दोगी।"
मुक्ता, राधा के हाथ थामकर आँखों ही आँखों में अपने मन की बात कह देती है, " शुभी ! "चलो छुटकू भैया को राखी बाँधो। अब ये तुम्हारे साथ रहेगा। "
कहीं से गाना सुनाई देता है, " राखी बंधवा ले मेरे बीर,,,,।"
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर

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दादी की परी
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