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धरती से टिका अंगूठा - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

धरती से टिका अंगूठा

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धरती से टिका अँगूठा*

" पापा ! भूल गए ना बी पी की गोली लेना। पहले दवाई लीजिए। "
विनायक मॉल जाते हुए पत्नी को हिदायत देना नहीं भूला,
" सिद्धि ! पापा को देखते रहना। "
दिनेश जी दोनों बेटों के बारे में सोचने लगे ... बड़े कार्तिक से कितनी आशाएँ थी। अपनी बचत से उसके सपनों को पूरा किया, उसे इंजीनियर बनाया। किन्तु उसने ऐसी उड़ान भरी कि साल छः महीने में एकाध बार हालचाल पूछ लेता है। अब तो वह खुद परिवार वाला हो गया है। और विनायक को बस दादी के प्रसाद से मतलब रहता था। पढ़ने में मन लगता ही नहीं था। दादी की सेवा व माँ को काम में हाथ बटाने से फ़ुर्सत मिले तब ना। किन्तु पिता के बीमार होने पर अपनी सूझबूझ से एक छोटी सी किराना दुकान को मॉल का रूप दे दिया।
" क्या सोचने लगे ? " पत्नी गोरी की आवाज़ से तन्द्रा टूटी, " इस वीनू को मैं नालायक समझता रहा, कितना ग़लत था मैं। वही आज सबको साथ लेकर चल रहा है। "
" पता है आपको वीनू ने तो कमाल ही कर दिया। सब गिले शिकवे भूल परिवार को एक करने का नेक काम कर दिखाया, एकदन्त जैसा। आज देवर जी आए थे। " यशोदा ने याद दिलाया।
दिनेश अफ़सोस जताते हैं, " मैं तो गोलमटोल खाऊ गणेशा कहकर ही डाँटता रहता था। इसने तो समाज में मेरा नाम कर दिया। "
यशोदा याद दिलाती है, "माजी सही कहती थी कि यह तो सचमुच गणेश जैसा ही निकलेगा। जो माँ बाप की सेवा करता है , वह पूरे ब्रह्मांड को जीत लेता है। उसे ही रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति होती है। वह हर कर्म शुभ करके लाभ पाता है। और आपका लाड़ला तो बस उड़ान ही भर रहा है आज तक। "
स्वरचित
सरला मेहता
94, गणेशपुरी इंदौर

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दादी की परी
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