कहानीलघुकथा
विषय:*आँगन के फूल*
लघुकथा
शीर्षक: *मधुमालती*
" अरे पुष्पांश जी ! कहाँ हो भाई ? अब तो उम्र हो गई, कब तक खपते रहोगे अपने बगीचे में ? "
पड़ोसी मित्र शेखर ने पुकारा।
पुष्पांश जी खुरपा सम्भालते आए, " अरे काका ! अब चढ़ादो पानी, ये चाय का भगत आ गया है। "
बेटे व बेटी के विदेश में बस जाने के बाद से पुष्पांश की यही दिनचर्या हो गई है। पत्नी मधुमालती द्वारा सँजोई इस लहलहाती बगिया से दूर जाने की सोच भी नहीं सकते। सहारा है तो दोस्त शेखर जो बीमारी आदि में ख़ोज ख़बर लेते रहते हैं। शाम के समय पास ही खण्डहर हो रहे मकान से अनाथालय के बच्चे आ जाते। घर के सामने खुले मैदान में खेलते हुए बच्चों को देख पुष्पांश जी बहुत खुश होते। बच्चों को भी कुछ न कुछ खाने को मिल जाता।
" तुम मानो तो एक राय दूँ... क्यों न अपने इस बड़े से भूत बंगले को इन मासूमों का आश्रय बना दो। वैसे भी ये तुम्हारे बगीचे की देखभाल में कितनी सहायता करते हैं।"
मित्र का मशविरा सुन पुष्पांश सोचने लगे," बात तो सौलह आने सही है। बगीचे में रोज़ गुलाब मोगरा चमेली जुही चम्पा पारिजात खिलते हैं और मुरझा जाते हैं। सारा दिन मेहनत करता हूँ सिर्फ़ ख़ुद के सुकून के लिए।
यदि इन बच्चों के कुम्हलाए चेहरों पर मुस्कान लादूँ... तो मेरी मधुमालती की आत्मा भी तृप्त हो जाएगी। "
लोग अचंभित...घर होस्टल में तब्दील हो गया। आठों कमरें छोटे छोटे लाल हरे पीले पलंगों से सज गया। हाँ काम वाले काका को अब काकी को भी हाथ बटाने बुलाना पड़ेगा।
बगीचे के फूल नन्हें हाथों का स्पर्श पाकर और भी महकने लहकने लगे। और रंगबिरंगे फूलों से लदी मधुमालती की शाखाएँ चाय पी रहे पुष्पांश से लिपटने लगी।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर