कविताअतुकांत कविता
*इच्छाएँ*
*संतोषी सदा सुखी*
प्रभु पैग़म्बरों का कहना हैं
दुखों की जननी है इच्छाएँ
आती हैं घोड़े पर होकर सवार
बढ़ती हैं समय-चक्र के साथ
रबर की डोर सी छोरों से परे
हनुमत जी की पूछ के सदृश
वक़्त रहते समेटते चलो इन्हें
बेहतर है बढ़ाओ ही नहीं
क्यूँ न पैर उतने ही पसारे
जितनी लंबी अपनी चादर है
बहादुर लाल कह गए हैं
अन्न-अभाव की पूर्ति करने
रखो उपवास सोमवार का
समर्थ बनना है यदि तुम्हें
व्यर्थ ना करो अन्न-जल को
दो चार पोशाकें पर्याप्त है
क्यूँ भरें अलमारियाँ लबादों से
माँग पूर्ति के सिद्धांत पर चलो
सायकल से स्कूटर फ़िर बाइक
मारुति से आल्टो फ़िर ऑडी
महत्वाकांक्षाएँ असीमित हैं
गौधन, गजधन,बाजिधन
मुक्ताधन,रतनधन की खान
जब आ जावे सन्तोषधन
सारे धन होते धूल समान
जो कुछ है हमारे हाथ में
संतुष्टि पाओ मूर्ख मानव
किन्तु जो गुण हममें हैं
उन्हें बढ़ाना धर्म है प्यारों
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर