कहानीलघुकथा
#गूंगी
हाँ गूंगी यही तो नाम था जिस नाम से उसे सब बुलाते थे।
उसका अल्हड़ सा बचपन कितना मनमोहक था ।
एक बार मैं अपने गाँव गयी वहीं मुझे वो मिली , बस जुबान की कमी बाकी रूप-गुण में कोई भी कमी नहीं थी, वो सारे दिन सबके आगे पीछे दौड़ती रहती। सब उससे अपना काम करवाते रहते और वो थोड़े से अपनेपन के लिए सबके आगे पीछे दौड़ती रहती थी।
वो छोटी सी उसे क्या मालूम कि ये अपनापन सिर्फ दिखावा है, इस अपनेपन के पीछे कई अपना मतलब भी निकाल ही लेते थे। मुझसे भी उसका कुछ अलग ही लगाव हो गया था। वो समय निकालकर मेरे पास पढ़ने आती थी।
एक दिन शाम को रोती-रोती वो मेरे पास आई ,वो गूंगी इशारों से मुझे आपबीती बताने कि कोशिश कर रही थी, उसके कपड़े देखकर इतना तो मुझे समझ आ ही गया कि उसके संग कुछ गलत हुआ है।पर, पर -मैं क्या कर सकती थी, मैंने बहुत कोशिश की उसे इंसाफ दिलाने कि, कई जगह भाग दौड़ की पर सब जगह से सिर्फ और सिर्फ निराशा हाथ लगी। घरवालों ने भी कहा कि इस अंजान के लिए गांव वालों से झगड़ा मोल लेने कि जरूरत नहीं, मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि मैं क्या करूँ। सबने मदद से मना कर दिया क्योंकि जिसके खिलाफ जाना था वो ठहरा गांव का सरपंच। आखिर मैंने भी हार मान ही ली और गांव से वापस आने लगे।
गांव से निकलते समय गूंगी की आंसू भरी निगाहें मुझे देख रही थी मानो कह रही थी कि दीदी आपने भी मेरी मदद नहीं कि और मेरे बहते आंसू कह रहे थे ।
मुझे माफ कर देना गूंगी तू तो बिना जुबान के जन्मजात गूंगी है।पर, मैं ,मैं तो जुबान वाली गूंगी हूँ जिसके पास जुबान तो है पर उसका उपयोग वो अपनी मर्जी से नहीं कर सकती। समाज और परिवार के लोगों ने मेरी जुबान काटकर मुझे गूंगी बना दिया है।
दीप्ति शर्मा दीप
जटनी( उड़ीसा)
स्वरचित व मौलिक