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झूले वाला बरगद - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

झूले वाला बरगद

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*झूले वाला बरगद*


छुट्टियों में होस्टल से गाँव आई दस वर्षीय क्षमा दादू के कारखाना स्थल से आकर उदास बैठी है।
" क्या हुआ हमारी लाड़ो को ? हमारे खिलौना कारखाने के लिए अपनी पसंद तो बताओ ज़रा। "
दादू ने पूछा।
क्षमा बरस पड़ी, " दादू ! पर आपने कारखाने के लिए कितने पेड़ कटवा दिए। मैंने साइंस में पढ़ा है कि पेड़ पौधों में भी जान होती है, उन्हें भी तकलीफ़ होती है। वे भी साँस लेते हैं। गन्दी गेस लेते हैं और हमें देते हैं आक्सीजन। पता आपको, जब मैं अपने झूले वाले पेड़ से लिपटी तो वह रो रहा था। दो अंकल कितनी निर्दयता से काट रहे थे बेचारे
को। "
" गुड़िया ! क्या करें तेरे भैया के लिए धंधा तो शुरू करना होगा ना। पेड़ तो और लगा देंगे। "
" नहीं दादू ! हरे पेड़ काटना पाप है। आप घर के पीछे खाली पड़ी जमीन पर कारखाना बनवा लो ना। खेलने के लिए हम बच्चे हाट मैदान में जाया करेंगे। "
दादू ने सोचते हुए फोन उठाया, " अरे भई ! पेड़ कटाई काम एकदम बन्द करवा दो। "
खुश होकर क्षमा दादू से लिपट गई, " कब झूला डलवा रहे हो मेरे प्यारे बरगद पर ? "
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर

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दादी की परी
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