कविताअतुकांत कविता
मेहँदी
झूमते सावन के झूले हो
या उत्सव के मेले हो
धूम हो त्यौहारों की
या बिदाई की बेला हो
नानियां दादियां पीछे कहाँ
फिर नन्हीं बालाएं तो बस
बैठ जाती हैं रचाने हिना
तन मन पाते हैं शीतलता
हाथों पैरों में कुमकुमी आभा
जब दुल्हनिया है बनती
पिया के नाम की हिना रचाती
जब सावन है आता
झूले की पैगे मेहंदी की
लाली और ही महकाती
भारत की ये परम्परा है
लालिमा में शगुन भरा है
आओ आज दोस्ती के नाम की
यादों में घुली हिना रचाए
सरला मेहता
इंदौर