कविताअतुकांत कविता
*धागे प्रेम के,,,,*
हमारे सारे रिश्ते हैं,
रेशमी धागे प्रेम के।
बड़े नाज़ुक हैं ये,
ज़रा में टूट जाते हैं।
और टूटे से फ़िर जुड़ते नहीं,
जुड़े भी तो गाँठ पड़ जाती।
ये रेशमी रिश्तों की डोर है,
इसे रखे सदा सहेज कर,
हाथ से फ़िसल जाती है,
सुलह की मुट्ठी में बाँधके रखें।
समझौते व सब्र के घोल से,
करते रहें मज़बूत इसे।
कोई भी मज़बूरी कभी,
तोड़ ना पाए रिश्तों को।
क्यूँ न इन रेशमी धागों को,
बना ले ऊन सा पक्का।
और लपेट लें एक गोले में,
सुलझे हुए सारे नातें।
रिश्तों को उलझाए नहीं,
उलझनें हैं नफऱत की गांठे।
बेहतर है टूटन जुड़न से,
बना लें लम्बी दूरी
और सहज सुलझी डोर
बढ़ती रहे सरल रेखा सी।
सरला मेहता
स्वरचित
इंदौर