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हिंसा - Mansi Mittal (Sahitya Arpan)

कविताअन्य

हिंसा

  • 191
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*हिंसा*

हे!धरती माँ तुमको ,
जाने कितने नाम दिये।
लेकिन जन मानस ने देखो,
शर्मनाक हैं काम किये।

विहग घरोंदे तोड़े तुमने
वन उपवन का है नाश किया।
अपनी वसुधा का देखो तुमने
कैसा है संहार किया!

अपने स्वार्थ की खातिर
वृक्षों पर अत्याचार किया।
अपनी भूमिजा का देखो तुमने
क्यों श्रृंगार बिगाड़ दिया।

प्रकृति की अनुपम कृति से,
मिलते हैं लाभ अनेक,
प्राणदायिनी होती ये है
बस काम यही है नेक।

आओ शपथ करें यह हमसब,
अब नही करेंगे प्रहार।
ये हिंसा नही छोड़ा तो,
जीवन से जाएंगे हार।

स्वरचित✍️
मानसी मित्तल
शिकारपुर
जिला बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश

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