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घर अपना - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

घर अपना

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घर अपना

गली में वक़्त गुज़ारते दो अनाथ बच्चे। एक साथ रहते दोस्ती हो गई। कब एक दूजे के हो गए, उन्हें भी नहीं पता। और बन गए अमर व मानसी।
अमर की साधारण सी बाबू की नौकरी है। घर खर्च, ऊपर से आरव अर्णव के स्कूल की फीस। अमर बस अपनी चादर खींचता रहता। फ़िर भी कहीं न कहीं कमी रह जाती। गनीमत कि सर छुपाने को एक घर बना लिया। मानसी ने अपनी सूझ बूझ से उसे एक सपनों का महल बना दिया।
" अरे अब बन्द भी करो तुम्हारी मशीन। दिनभर सिलाई करके चश्मा चढ़ा के बैठ गई।" मानसी कपड़े समेटती कहती, "पति जी आपकी चाय बन चुकी है।"
दोनों थके हारे बैठे सपने सजाते रहते," बस बच्चे कमाने लायक हो जाए तो गंगा नहाए।" मानसी हँसती, " बहुएँ आ जाए तो हम तीर्थ यात्रा करें, कुछ घूमे फिरे।"
दोनों बच्चे भी बालबच्चे वाले होकर मुम्बई में दो अलग फ्लैट्स में बस गए। माता पिता की बीमारी को देखते बेटों ने उनका बंटवारा कर लिया। दो शरीर एक जान थे मानसी व अमर।
अमर दिनभर आरव के बच्चों की देखभाल करते। और मानसी नौकरी वाली बहु का किचन सम्भालती। अमर मानसी परस्पर मिलने को तरस गए।
दोनों ने अपने घर लौटने का फैंसला किया और आ गए अपने घर।
आज दोनों में जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई। पूरा घर पहले जैसा चमकने लगा। दोनों सुकून से आँगन में बैठे चाय पीते एक दूसरे को निहार रहे हैं। अमर बोले, "आज मैं तुम्हारी पसन्द की खट्टी मीठी दाल बनाता हूँ।" मानसी ने चुटकी ली, " और मैं वही दूध वाली,,, क्या रोटियाँ भी तुम ही थेपोगे ? "
आज कितने दिनों बाद यह घर खिलखिलाया है।
अमर मानसी जो आ गए हैं।
सरला मेहता

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