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मोहताज नहीं होती कला - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

मोहताज नहीं होती कला

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मोहताज नहीं होती कला

"अरे वाह अबीर, तुम तो बड़ा अच्छा ड्रम बजाते हो। महान ड्रमर शिवमणि जी के चेले लगते हो। " मास्टर जी ने ताली बजाते पूछा। अबीर ने ड्रम बजाते सर हिला कर ना कहा।
पास ही बैठी ममा बोल पड़ी, " अरे नहीं सर, इसने आज तक ड्रम बजाना किसी से नहीं सीखा। हमारे घर में कोई नहीं बजाता। और ना ही हम इतने साधन सम्पन्न हैं कि बेटे को कहीं सीखने भेज सके। " मास्टर जी अचंभित हो बोले," अबीर आगे जाकर बहुत नाम कमाएगा। "
माँ बोली, "क्या बताऊँ सर, यह जब से समझने लगा घर के बर्तनों व डब्बों पर हाथ आजमाने लगा। स्कूल से भी खूब शिकायतें आती हैं कि इसके हाथ बेंच टेबल आदि पर चलते ही रहते हैं। इसके पापा चाहते हैं पढ़ लिख कर कमाई करने लायक बने। भूखे पेट न भजन गोपाला। ढोल नगाड़ा से भी भला घर चलता है। "
मास्टर जी बोले, " अरे, ये तो जन्मजात कलाकार है। धूल में भी फूल खिल सकता है। आपको तो फक्र होना चाहिए। देखिए प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती। "
सरला मेहता
इंदौर

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दादी की परी
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