कहानीलघुकथा
*अनोखा वर*
राजन जी सुहागिनों की आवाजाही देख सोचते हैं, " माधवी होती तो उसका भी कोई न कोई व्रत चलता रहता...वट सावित्री, दशा दशमी सोमवती अमावस्या और न जाने क्या क्या। उसने पिछवाड़े बेकार पड़ी जमीन पर पीपल बरगद आदि सहेज रखे थे। तुलसी माता के कई क्यारे लहक रहे हैं। उसकी वृक्षसेवा देख वनविभाग ने फेंसिंग करवाकर कई तरह के पौधे लगवा दिए थे। व्रत के दिन तो माधवी की सखियों से घर में मेला लग जाता था। एक दो साथिनें तो रोज़ ही नए पौधों की देखभाल करने आती ही रहती थी। चाय नाश्ता व बातों में दिन मजे से बीत जाता।
अपने सुहाग की रक्षा हेतु माधवी भूखी प्यासी रह सारे व्रत करती। ख़ुद निराहार रहती या फलाहार करती। पर मेरे लिए पूरा खाना बनाती। "
पतिव्रता माधवी, पति को लम्बी उम्र देकर स्वर्ग सिधार गई। राजन की लाख कोशिशें भी उसे बचा नहीं पाई। विदेश में रह रहे बच्चे कई बार आग्रह कर चुके हैं, "पापा, हम आपको ऐसे अकेला नहीं छोड़ सकते अब यहॉं। आपको इस बार चलना ही होगा। "
हमेशा की तरह राजन बोले, " अकेला कहाँ हूँ। यह घर और तुम्हारी माँ की यादें मेरे साथ हैं। तुम्हें याद है, मेरे लकवाग्रस्त होने पर कैसे उसने अपनी सेवा और आस्था से बचा लिया था मुझे। मैं भी यहीं उसके वृक्षों की देखभाल कर ईश्वर से वर मांगूगा कि मुझे हर जनम में मेरी सावित्री ही मिले।"
सरला मेहता