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बचपन की डायरी - Ahana archana pandey (Sahitya Arpan)

कविताअन्य

बचपन की डायरी

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संस्मरण -



बचपन की मासूम यादें भी उस उदास शाम की तरह होती है, जो सुकून भरे आलिंगन के साथ उदास कर जाती है....
बचपन की वो अमिट यादें , जो फोल्डर वाली डायरी में पन्नों पर सिमटती जाती हैं....
जो भविष्य में समय- समय पर हमारे मस्तिष्क को झकझोरती हैं.

आज मुझे भी बचपन की कुछ यादें वापस मुझे अपने गाँव ले गयी.....

कमरे के सामने बालकनी में खड़ी मैं, काले होते बादलों का धुंध देख रही थी जैसे मानो मैं उनके बरसने के समय सीमा का अनुमान लगा रही थी.
हवाएं भी सनन -सनन करती हुई आंधी की रफ्तार पकड़ चुकी थी....
उस धूल भरी आंधी को देखकर मुझे याद आने लगे बचपन के वो दिन.....
बारिश से पहले उमड़ती आंधी को देखकर कैसे मैं और मेरे दोस्त घर के पीछे वाले बाग में आम के टिकोरे बीनने चले जाते थे....
हवाओं के दबाव से टूटकर टिकोरे नीचे गिर जाते और हम सब उसे उठा कर अपने नन्हें -नन्हें अंजुरी में इकट्ठा कर लेते और ले जाकर माँ को देते हुए कहते इसकी तीखी चटनी बनाना...माँ हमारे बचपने पर मुस्करा देती थी.

फिर वापस हम उसी बाग में भाग जाते .....और बारिश के इंतजार में गुनगुनाने लगते...."काच कचौटी, पियरी माटी , मेघा तनी पानी दे" .....और बारिश के बरसते ही हम कूदते, फानते, नाचते, गाते उन तितलियों को मुट्ठी में भरने का प्रयास करते जो बारिश की बूंदों में हर एक फूल पर उछलती रहती.

मुझे याद है ऐसी ही एक शाम थी जब मैं अपनी ही हमउम्र दो चचेरी बहनों, और एक पड़ोस की दीदी के साथ स्कूल से छूटते ही घर के बजाय उल्टी दिशा में निकल पड़ी थी....

करीब शाम के चार बज रहे थे स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी और मैं अपनी बहनों के साथ स्कूल के ग्राउंड में पड़ोसन दीदी का इंतजार कर रही थी, आसमान बादलों से घिरने लगा था....
मैं आसमान में काले बादलों को सिर उचका उचका के निहार ही रही थी कि ...पीछे से एक आवाज आई " पास वाले गाँव में चलोगे क्या? " पीछे मूड़ के देखी तो दीदी खड़ी थी.

तभी मेरी बहनों ने सिर हिलाते हुए कहा, ना बाबा हम नहीं जाएंगे...बारिश होने वाली है घर वालों को पता चला तो बहुत मार पड़ेगी......
उन दोनों का जवाब सुनकर , मेरे जवाब के इंतजार में उनकी आँखे मुझे एकटक निहार रही थी....
मैंने बिना कुछ बोले अपनी आँखे नीचे गड़ा ली...
वो मेरा जवाब समझ चुकी थी.....

अरे चलो न , तुम सब मेरे साथ ! कुछ नहीं होगा मैं मार पड़ने से बचा लूंगी....बस थोड़े ही समय में वापस लौट आएंगे....दीदी आश्वासन देते हुए बोली.
दस मिनट तक मिन्नत करने के बाद जैसे- तैसे हम लोगों ने अपना मन बदला , और दूसरे गाँव की ओर निकल पड़े....

हमारा स्कूल गाँव के बॉर्डर पर था,....स्कूल से एक कदम की दूरी पर गुड़ बनाने वाली दुकान थी, .
जैसे ही हम दुकान के करीब पहुंचे मेरी पैनी नजर गुड़ पर जा टिकी.....
जीभ लपलपा रही थी, नजरें गुड़ पर थी और दुकान पर बैठे बड़ी बड़ी मूँछ वाले काका गुड़ बनाते हुए मुझे एकटक देख रहे थे....

अठन्नी की गुड़ ले लूं क्या ? खाओगे तुम लोग ? दीदी ने उत्सुकता भरे लहजे में कहा तो ,मेरी नजर गुड़ से सीधे दीदी के चाँद, चकोर चेहरे पर जा टिकी ...जो अपनी बड़ी बड़ी कमल जैसी आँखो से खिलखिलाते हुए मुझे देख रही थी....

लालसा तो बहुत थी किन्तु मैंने अपने चंचल मन को मसोटते हुए ना में सिर हिला दिया...माँ के दिए हुए संस्कारों ने मेरे गुड़ चखने की इच्छा को तहस- नहस कर दिया .....
गुड़ से नजर बिसरा कर हम लोग फिर गाँव की ओर कदम बढाने लगे.....
हमने अपने पग बढ़ाये ही थे कि बारिश छमछम करते हुए बरसने लगा .... लेकिन बारिश भी हमारे कदम रोकने में असफल रही....हम अनवरत चलते ही जा रहे थे, ...
चिकनी पिली मिट्टी से बनी चौड़े कच्चे सड़क पर तेज बारिश से फिसलन हो चुकी थी....
हवाओं के तेज झोंके हम पर बार बार ऐसे चिपटते मानो हमें उड़ा के ही ले जाएंगे, ....

कभी हम हवाओं से खुद को बचाते तो कभी फिसलन से सम्भलते ....जैसे- तैसे हम बचते, बचाते दूसरे गाँव की सीमा तक पहुँचें.....
सीमा पर एक खाली मैदान था , जो इतना चौड़ा और थोड़ा गहराई में था जैसे कोई रेगिस्तान हो....
उसे पार करने के पश्चात ही दूसरे गाँव में प्रवेश करना सम्भव था.....
किन्तु उसे पार करना मुसीबत को चुनौती देना था, क्योंकि तेज बारिश से वो मैदान पानी से इतना भर चुका था , जैसे कोई नदी हो....
अगर हम एक कदम और आगे बढ़ाते तो पानी का बहाव हमें कहाँ तक का सफर करवाता , इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था.....

वहाँ आसपास कोई घर, कोई आसरा नजर नहीं आ रहा था...बस चारों ओर पीली मिट्टी का खाली मैदान और उसमें भरा पानी....जाएं भी तो कहाँ जाएं ? .... हम तीनों बहन सवालिया नजरों से दीदी की तरफ देखने लगे...और दीदी भय से थरथराती हुई मुजरिम की तरह नजरे झुकाये खड़ी थी....
हम चारों वहाँ असहाय खड़े बारिश में भीगते हुए किसी मददगार की प्रतीक्षा करने लगे.....

कोई भी शख्स आता नजर नहीं आ रहा था, आता भी कैसे , उस तेज बारिश में किसी को जंगली कुत्ते ने थोड़ी काट रखा था जो अपना सुकून और सुरक्षित आसियाना छोड़कर बारिश में भीगने निकल पड़ता ? .... हमारी मत ही मारी गयी थी जो अपना गाँव छोड़ के उल्टी धारा में बह पड़े....
कसम से मन ही मन में मैं उस दिन दीदी को खूब गालियां दे रही थी...... मैं भगवान को भी मन में कोस रही थी कि उन्हें मेरी दीदी क्यों बनाया ? अगर वो दीदी नहीं होती तो अपनी सारी भड़ास अब तक निकाल चुकी होती....

कुछ देर खड़े रहने के बाद दीदी को पानी में डूबा एक रस्सी का बना पुलिया नजर आया....
वो देखो इसे पार करने के लिये पुलिया है चलो चलते है...दीदी बड़े तेज स्वर में एक उम्मीद के साथ बोली, तो मैंने झट से मना कर दिया...
"कैसे जाएंगे? देख नहीं रही वो पुलिया पानी के अंदर है और बारिश के वजह से पानी का बहाव इतना तेज है कि डूबने के बाद हम तो हम , हमारी परछाई भी किसी को नहीं मिलेगी....
अरे! तुम लोग व्यर्थ ही चिंतित हो रहे हो,...मैं हूँ न ! पार करा दूँगी....
उस समय सहमत होने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं था....
अभी हम पुलिया की तरफ बढ़ने ही वाले थे कि एक तेज झोंके से पुलिया का खम्भा पानी में इतना तेज गिरा कि उसका पानी उछल कर हमारे चारों ओर भर गया और हम नीचे गिर पड़े और रपटते, रपटते पुलिया के पास तक पहुँच गये हम उस वक्त मौत को बेहद करीब से देख रहे थे....
बचाओ, बचाओ! हम चिल्ला रहे थे और कोई मसीहा हमें नजर नहीं आ रहा था.....
तभी अचानक बारिश बंद हो गयी और पानी भी कम होते होते गड्ढे में जाने लगा....
जैसे- तैसे हम अपने प्राण बचाकर वापस उसी स्थान पर आकर खड़े हो गये , जहाँ पहले थे...
हमने दूसरे गाँव जाने का ख्याल अपने मन से निकाला और वापस अपने गाँव की तरफ लौटने लगे....

घर पहुंचते ही मम्मी ने गुस्से में तमतमाते हुए पूछा , कहाँ थी अब तक ?
मैंने डरते डरते सहमी आवाज में मम्मी को सारी कहानी बता डाली...
मम्मी ने इतना डाँटा कि मेरे कानों और मस्तिष्क के सारे उर्जे- पुर्जे ढीले हो गये....गनीमत ये हुई कि मार नहीं पड़ी बस डाँट की खुराक से ही काम चल गया....
इधर मम्मी के तानों से बचते बचाते उन दोनों लडकियों की खबर लेने घर के पीछे वाली फूलवारी में पहुंची तो देखा उनकी धुलाई ऐसे हो रही थी जैसे धोबी , धोबीघाट पे कपडों को धो रहा हो ....

मुझे गाँव छोड़े इतने बरस बीत चुके लेकिन वो बारिश वाली शाम आज तक मेरे जहन में ज्यों की त्यों है...

अपनी उन शरारत भरी यादों से सुध आई तो देखा कि बारिश के तेज पानी से पार्क पूरा खचाखच हो चुका था....बूंदों से लिपटी फूलवारी साफ व आकर्षक लग रही थी ,....
मैं अपनी बालकनी में खड़ी होकर वही बचपन की शाम एक बार फिर अनुभव कर रही थी.......

काश! वो बचपन एक बार फिर लौट आता, मैं उन शरारत पलों को अपने कैमरे में कैद कर लेती, उन तितलियों को पकड़ पाती, बारिश में दोस्तों के साथ फूलवारी में भीगते हुए नाचती , गाती , गीले व फिसलन वाले पगडंडियो से भागते हुए पोखर किनारे तक जाती और बारिश की बूंदों में छमछमाती पोखर के भीतर उन मछलियों को अपने नन्हें नन्हें मुट्ठियो में भरने का प्रयास करती.....

-अहाना अर्चना पांडेय

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