कविताअतुकांत कविता
बीते लम्हें
बीते लम्हों में बचपन को
जब भी याद करती हूँ
अश्क आँखों से बहते हैं
लबों पर मुस्कुराती हूँ
हवाएं गुनगुनाती हैं
और पत्ते सरसराते है
मेरे माथे को छूता
हाथ माँ का याद आता है
पलों में रूठकर रोकर
सखी से बात ना करना
वो फिर से सुलह करना
आज भी याद आता है
बहन के केश सुलझाना
उसे बातों में उलझाना
लोरी से सुलाना भाई को
आज फिर याद आता है
वो बुहारना आँगन
और फिर मांडना स्वस्तिक
शालिग्राम पर तुलसी
चढ़ाना याद आता है
वो अमरुद की फांके
और कच्चे बेर मुट्ठी में
चुरा कर इमली का खाना
आज भी याद आता है
माँ संग काम का करना
दबाना पैर बाबा के
फिर खुद भी सो जाना
मुझे अब याद आता है
सरला मेहता