कविताअतुकांत कविता
पितृ दिवस पर,,,,,
*अकेले हम*
नहीं समझ पाया था
जन्मदात्री माँ का दर्द
कर्ज में डूबे पिता प्रति
एक पुत्र का अहम फर्ज़
*सोचता था बस यही
जन्म दिया है इन्होंने
कर्तव्य तो निभाना ही था
कौनसा एहसान किया है
*जब मैं स्वयं पिता बना
और पत्नी माँ बनी
बदल गई हमारी दिनचर्या
सुबह से रात तक की
*तुम्हें कोई दर्द होने पर
रातभर तीमारदारी करना
और जब तुम सोते थे
जल्दी से काम निपटाना
*हम दोनों बारी बारी से
लेने लगे थे छुट्टियाँ
जब तुम्हारे दाँत निकले
या ठुमक के चलना सीखे
*तुम्हारे स्कूल की मांगें
जब भारी होने लगी
हमारे शौकों की फ़ेहरिस्त
छोटी होने लगी थी
*तुम्हारी पढ़ाई व नौकरी
और ब्याह की रस्मों में
खाली कर दिए सब खाते
हमारा अरमान जो थे तुम
*अचानक चल दिए तुम
अपनी ऊँची उड़ान पर
रह गए दोनों वैसे ही
जैसे थे कभी अकेले हम
सरला मेहता
94, गणेशपुरी खजराना
इंदौर