कहानीलघुकथा
*नीली चुनरिया*
" दीदी दीदी ! आप तो बस गुजरात में ही मस्त रहो। हमारे लिए भी कुछ करो ना। पता भी है आपको, हमारी छोटी बहना मालवा की गंगा
भी हमारी गंगा माँ की तरह मैली हो गई है।पता भी है प्रदूषणों से सूख कर काँटा हो गई है। "
चम्बल व गम्भीर का मेसेज पढ़कर नर्मदा घबराई और तुरन्त चल पड़ीं उज्जैनी गाँव की ओर। वहाँ लँगड़ाती चलती क्षिप्रा को देख आह भरती है, " मेरी बिजली की तरह दौडने वाली बहन इस हाल में कैसे भला ?
क्षिप्रा सिसकती है, " क्या बताऊँ, जनमानस व पंडों द्वारा मेरा शोषण हो रहा है। सब पुण्य व पैसा कमाने में लगे हैं। मोक्ष व पाप धोने के नाम मुझे कचरापेटी ही बना दिया है। विसर्जन करते रहे, पर मेरी निर्मल देह पर जमी गाद उन्हें नहीं दिखती।"
नर्मदा दुलारते हुए सांत्वना देती है,"दुखी मत हो मेरी छोटी, हम सब तेरे साथ हैं। ये धर्मप्राण कावड़िए सालों से मुझे कलशों में भर तुमसे मिलाने आते हैं। भई मैं भी तो कुछ करूँ अपनी छुटकी के लिए।अगर जनता नहीं सुधरी व सरकार ने कड़े कदम नहीं उठाए तो हम सब नदियाँ अपना काम बंद कर हड़ताल कर देंगी। हाँ, जब तक तो मैं तुझे लबालब करती रहूँगी, प्यासी नहीं रखूँगी। अरे मैंने साबरमती की मदद की है। फ़िर तू तो मेरी अपनी है।आ तुझे नीली चुनरिया ओढ़ा दूँ, आज तेरा कायाकल्प करदूँ।" क्षिप्रा दीदी से गले मिलती है। तभी उसका मोबाइल बजता है,दुख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे,,,।कल कल करती इठलाती क्षिप्रा कहती है,"ये मेरे बाबाको दो घड़ी भी चैन नहीं। महाकाल बाबा, अभिषेक इतना पानी तो भर आईं थी। आपके चरण पखारने बस पहुँच ही रही हूँ। "
सरला मेहता