Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
विवाह कहीं आह ना बन जाए - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

लेखआलेख

विवाह कहीं आह ना बन जाए

  • 241
  • 15 Min Read

विवाह कहीं आह ना बन जाए*

एक कहावत है,विवाह- वाह-- आह---कराह।
अक्सर यही होता है, विशेषकर लड़कियों के साथ। हाँ कुछ अपवादों को छोड़ कर। प्रेम विवाह भी विफल हो जाते हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
हमारी सामाजिक परम्पराएं ही ऐसी हैं। एक बेटी को बचपन से ही यह अहसास कराया जाता है कि उन्हें पराए घर जाना है। परवरिश में एक प्रशिक्षण काल भी जोड़ दिया जाता है,,,,
कहा मानो, प्यार से बोलो, सहन करना सीखो आदि आदि। लिस्ट बहुत लंबी है हिदायतों की।
दूसरी बात वह देखती सुनती है कि उसकी फलाँ परिचित या सहेली के विवाह का हश्र क्या हुआ। आधुनिक सुलझे समाज में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ताड़ना प्रताड़नाएँ मौजूद हैं। सुशिक्षित सौम्य बहु में भी खामियाँ निकाली जाती हैं। बहु को बेटी बनाना या बेटी सा मानना यह हर सास नहीं कर सकती, अपवादों को छोड़कर। लाड़ से पली बेटियों को भी ससुराल भेजने के पूर्व घर के कार्यों में दक्ष नहीं किया जाता। करियर बनाने की दिशा में ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। बस शौकिया तौर पर पसन्द का काम करती हैं। ऐसे में सास व बहु दोनों के अहम टकराए बिना नहीं रहते। यहॉं दोनों पक्षों में से एक को दो कदम आगे जाना है तो दूसरे को दो कदम पीछे।
पति भी अपने समकक्ष योग्यता वाली पत्नी को वह सम्मान नहीं देता है। उसका अहम कभी स्वीकार नहीं करता कि पत्नी तरक्की में उससे आगे रहे,यदि नौकरी पेशा है। उसे पत्नी अनुगामिनी के रूप में ही पसन्द आती है।
सुंदरता भी शादी के लिए एक शर्त है। लम्बाई चौड़ाई रंगरूप नाकनक्ष चालढाल चलन सब पैमानों पर परखा जाता है। आश्चर्य की बात कि एक लड़के पर ये शर्तें लागू नहीं होती। लड़की बेचारी ओहदा व घर की हैसियत से ही संतुष्ट हो जाती है। कई बार माता पिता के ख़ातिर हर स्थिति में तारतम्य बैठा लेती है।
आजकल ऊंची उड़ानों व नई उपलब्धियों से लड़कियों के विचारों में एक क्रांति आई है। उनकी अपनी आशाएँ महत्वाकांक्षाएं हैं। वे जीने का तरीका व मक़सद स्वयं तय करने लगी हैं। आज़ादी की चाह में शादी नाम की बेड़ियों में नहीं बंधना चाहती हैं। गलती से बेमेल साथी मिलने पर वे अपनी नई राह चुन लेती हैं। अभिभावक भी इसका सम्मान करते हैं। समाज में भी कोई छिछालेदारी नहीं होती। अगर कोई संतान भी है तो उसका दायित्व सहर्ष उठा लेती है। माता पिता भी बेटी व बेटे में कोई अंतर नहीं रखते। बल्कि बेटियों को कुछ अधिक ही प्यार मिलने लगा है।
मायके के दरवाज़े उनके लिए सदा खुले रहते हैं। आजकल एक पिता घर बनवाते समय बेटी का कमरा या उसके हक़ का हिस्सा बनवाना नहीं भूलता। अर्थात विवाह के आह कगार पर आते ही आज की नारी सतर्क हो आगे बढ़ जाती है। वह कराहने तक की राह नहीं देखती।
यह समाज के लिए ही नहीं अपितु पुरुषों के लिए भी खतरे की घन्टी है। बिगुल बज चुका है। अभी भी स्थिति सम्भल सकती है। कई लड़कियां बिनब्याही रह अपने माँ पापा का भी सहारा बनना चाहती हैं। उनकी अपनी सखी सहेलियाँ हैं जिनके साथ वे दुनिया घूमती हैं। अपने मन माफ़िक ज़िन्दगी जीती हैं। पुरुषवर्ग की तमाम उपेक्षाओं के कारण ऐसे जीवनसाथी की अपेक्षा नहीं रखती। अतः दोनों पक्षों की ओर से सहयोग समझौता सामंजस्य की ज़रूरत है।अन्यथा भविष्य में स्थितियां सामाजिक संरचना के लिए घातक हो जाएगी।
हो सकता है कई लड़के भविष्य में अनब्याहे रह जाएं। समय रहते चेतना होगा वरना वंशबेल मुरझा जाएगी। जग संसार कैसे चलेगा।
सरला मेहता
इंदौर

logo.jpeg
user-image
समीक्षा
logo.jpeg