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--: संस्मरण:--
*जब माँ ने मुसीबत से
निकाला मुझे*
परवरदिगार ने माँ को क्या बनाया कि ख़ुद ही बेरोजगार हो गया। सच भी है जो चमत्कार भगवान कर सकते हैं, माँ भी सब कुछ कर गुज़रने का हौंसला रखती है। सन्तान के लिए वह असम्भव को भी सम्भव कर सकती है। प्रत्येक मुसीबत में *मैं हूँ ना*का
अहसास दिलाती है।
विवाह के नौ वर्ष पश्चात मैंने बच्चों की पढ़ाई के ख़ातिर नौकरी शुरू की। पति के गाँव कस्बों में बार बार स्थानांतर के कारण यह निर्णय लेना पड़ा। मैं बच्चों को माँ के पास इंदौर ले आई। एक सहकारी बैंक में नौकरी करने लगी। मुझे साल भर के प्रशिक्षण हेतु जबलपुर जाना पड़ा। ऐसे में पाँच वर्षीय बेटी व तीन वर्षीय बेटे की जिम्मेदारी माँ ने सहर्ष स्वीकार कर ली। और मुझे प्रशिक्षण हेतु जाने का कहा। दोनों बच्चे बिना मम्मा पापा के कभी रहे नहीं थे। और तब तक नानी के पास भी ज़्यादा नहीं रहे थे।
दोनों को नहलाना, तैयार कर स्कूल भेजना और उनका गृहकार्य करवाना आदि सभी काम माँ को अपनी बढ़ती आयु में करने पड़ते। बच्चों के खाने के नखरे सिर्फ़ माँ ही उठा सकती है। मेरी
माँ सारा दिन लगी रहती। उनको नई नई पौष्टिक चीज़ें खिलाती रहती।
बीच में एक बार जब बच्चों से मिलने आई तो पाया दोनों ही खूब गोरे व गब्बू हो गए थे। मम्मा कहना भूल नानी नानी की ही रट लगाते रहे।
इसके बाद मेरे बेटे को गम्भीर रूप से माता निकली। तेज़ बुख़ार व ऊपर से बड़े बड़े दानें। कई बार खुजाल लेता तो पानी निकलता। पर माँ बड़े प्यार से रुई से साफ़ करती व उसे बहलाती रहती। रात रात भर उसकी देखभाल में लगी रहती।
आज सोचती हूँ कि अगर माँ ना होती तो मैं ट्रेनिंग में म प्र में पहला नं नहीं ला पाती। खैर दस साल बाद मैंने स्कूल में नौकरी कर ली। वहाँ भी बी एड का समर कोर्स माँ के सहयोग से ही कर पाई।
मेरी हर मुसीबत में वो मेरे घर आकर रहती। मेरा घर भी माँ के घर के पास ही था। अतः मेरे नौकरी पर जाने के बाद बच्चे नानी की छत्रछाया में रहते।
सच माँ के बिना हम अधूरे हैं। मैं तो अधेड़ होने पर भी माँ पर ही निर्भर रहती थी। मैंने कभी अचार मुरब्बा तक नहीं बनाया। ऐसा कहते भी हैं ,,,जब तक बड़ों का साया रहता है , बच्चों पर कोई मुसीबत नहीं आती। और आती भी है तो आसानी चली जाती है।
सरला मेहता