कहानीलघुकथा
विषय:-*भाग्य*
मुद्रा अवमूल्यन की आकांक्षा से ही बाज़ार डगमगाने लगा। निजी संस्थानों में छटनी का दौर चल पड़ा। शेखर की मिल में भी सुबगुबाहट होने लगी। सोचने लगा कि खराब मशीन सुधारने में उसकी कोई सानी नहीं। एक नया इंजीनियर लड़का भी उसी से पूछकर काम करता है। कुछ आश्वस्त हो मिल से निकल पड़ा।
घर आते ही पत्नी शिकायती लहज़े में बोली, " आज भी खाली थैला लटकाते आ गए। अब मत कहना कि ज़रा कड़क चाय तो पिलाओ।"
शेखर जी झल्लाए, "तुम्हें सामान की पड़ी है। घर बिठा दिया गया तो ,,,क्या करूँगा, पगला ही जाऊँगा।"
चाय की तलब ने झोला उठाने को मजबूर कर दिया। झुंझलाते बोले, चाय चढ़ाओ, सामान लाता हूँ। "
राह में रोज़गार कार्यालय के आगे अच्छे घरों के नवयुवक युवतियों की भीड़ देख ठिठक गए। पता लगा चपरासी पद की चयन सूची लगने वाली है। सोचने लगे, "मेरी किस्मत का मैंने पा लिया। फ़िर साल भर में बेटा भी कमाने लगेगा।"
घर की याद आई कि पत्नी भाग्य को कोस रही होगी, " अच्छे भुलक्कड़ से पाला पड़ा। चाय का पानी भी उबल गया होगा।"
सरला मेहता