कहानीलघुकथा
*लागे चुनरी में दाग*
विद्यालय के मंच पर नाटक चल रहा है। नगर के गणमान्य नागरिकों के रूप में बच्चे चर्चारत हैं।
नेता जी पसीना पोछते शिकायत करते हैं, " अरे भई, ए सी का प्रबंन्ध करते।" तभी एक सुंदर किन्तु उदास सी महिला लड़खड़ाते आती है।कार्यकर्ता डाँटता है, "भागो यहाँ से, दिखता नहीं बड़े बड़े लोग बैठे हैं।"
सेठ जी तंच कसते हैं," ये न , आजकल कहीं भी भटकते दिख जाती है। तार तार हो रही हरी धोती का रंग देखो , बदरंग हो गया है।"
वह तेजोमय अधेड़ सी दिखती युवती चिल्ला पड़ती है, " अरे मूर्खों, तुम अपनी माँ के नहीं हुए, इस मातृभूमि को क्या याद रखोगे। विकास के नाम पर अंधाधुंध वृक्ष कटाई करते रहे। आज मेरी इस मैली चूनर पर हँस रहे हो। मेरे साथ मेरे भाई बहनों वायु जल अग्नि को भी प्रदूषित कर दिया। तुम्हारे ए सी, फ्रिज़ व अन्य बिजली उपकरणों से निकली ग्रीन हाउस व अन्य ज़हरीली गैसों ने मुझे तपाकर रख दिया। मेरे ह्रदय की ओजोन परत में छेद हो गए हैं। "
सब कुर्सी छोड़ खड़े हो गए, " माँ, हमें क्षमा करो। हम बस अपनी ही जेब भरने में लगे रहे। हम वादा करते हैं, आपको धानी चूनर ओढा कर ही दम लेंगे। वरना हमारे बच्चों को मास्क के साथ आक्सीजन सिलेंडर लादना होगा। अगले पृथ्वी दिवस तक आपकी तपती देह पर नदियाँ पुनः कलकल करेंगी। "
सरला मेहता