कविताअतुकांत कविता
*चार दिन की ज़िंदगी*
हँसते रोते आँखे खोली
होले से सहलाया माँ ने
खाली हाथों आया हूँ मैं
रचना मुझे इक कहानी
कर्ज़ मुझको है चुकाना
चार दिन की ज़िंदगी में
रिश्ते नाते, करीबी दोस्त
सबके प्यार से सरोबार
अभी तक लेती आई हूँ
सबसे जो दिल ने चाहा
फ़र्ज निभाने हैं कई मुझे
चार दिन की ज़िंदगी में
ग़र भला ना कर पाऊँ मैं
किसी का बुरा क्यूँ करूँ?
गिला नहीं किसी से मुझे
चाहे बिछादे काँटे राह में
मैं तो फ़ूल ही बिखेरूँगी
चार दिन की ज़िंदगी में
सब कुछ मिला मनचाहा
चाहूँगी देना भूखे को रोटी
बेघर को उसकी एक छत
तन ढाँकने को थोड़े वस्त्र
हर ओठ पे नाचे मुस्कान
चार दिन की ज़िंदगी में
चाहत है बस इतनी मेरी
बच्चा बच्चा स्कूल जाए
अपना वो आकाश पाए
बचपन भी उड़ान पाए
इनके सारे हक़ दिला दूँ
चार दिन की ज़िंदगी में
आशा की डोर नहीं टूटे
विश्वास भाव पुख़्ता करूँ
पर्यावरण हिमायती बनूँ
पँछी बन नापू ऊंचाइयाँ
बरसा दूँ ढेरों खुशियाँ मैं
चार दिन की ज़िंदगी में
सरला मेहता