कविताअन्य
# 23 अगस्त
चित्र प्रतियोगिता
सर्वे भवन्तु सुखिनः
एक सूक्ति ख्यात थी कभी" कि"अहिंसा परमो धर्म अस्ति"
ह
धरते थे फूंक फूंक कर पैर
मनाते थे जीवमात्र की खैर
समाए मूल्य अतीत के गर्भ में
ऊँची उड़ाने की ओर है नज़रे
दिखते नहीं हैंआसपास हमें
रोटी को तरसते गरीब भूखे
आगे बढ़ने की होड़ व दौड़ में
लाश के ऊपर से गुज़र जाते
ग़रीबों के अरमानों को कुचल
बस तिजौरी भरने में मशगूल
हवस मिटाने को लोलुप भँवरे
मासूम कलियों को मसल देते
अपमानित करने के खातिर
जूता दिखाने में ये बड़े शातिर
आओ दमन पर अंकुश लगाए
सर्वे भवन्तु सुखिनः नारा गाए
भावना प्रताड़ना की मिटाए
हाथों में हाथ ले खुशियां लाए
सरला मेहता