कविताअतुकांत कविता
मैं आ रहा हूँ:-
गुजरे जमाने की तरह
कुचला गया पद चापों से
दबा हूँ अपनी ही जमीन पर
मरा नही अधमरा हूँ
आहत हूँ मैं समय की
बढ़ती तेज रफ्तार से
मेरे हिस्सें की धूप
मेरी आँतो की भूँख
जीवन की प्यास
सब कुछ जिंदा हैं मुझमें
चौपाया बन कर खड़ा
ढोता रहा जुल्मों का भार
सहे असह्य अत्याचार
मूँदकर आँखे अपनी
मूक बधिर बना रहा
अब खुली आँखे तो
सोने जैसी मिट्टी को
राख होते देखकर
खोद कर पथरीली सतह
अपने पसीने की नमी से
नव क्रांति अंकुर फुट पड़ा हूँ
जगी हैं भूख पेट की
ह्रदय में उमड़ी हैं पीड़ा
ले अंगड़ाई उठ खड़ा हूँ
पलटने को वक्त की बांजी
अपनी जिद पर आ अड़ा हूँ
बो दूँगा फिर अन्न के बीज यहाँ
कर दूँगा हरित शृंगार धरा का
मुझे आराम की चाह नही
पर मेहनत की रोटी पूरी लूँगा
छीन कर मुँह की रोटी अपनी
बैठ कर नही कौओं को खाने दूँगा
हक पाने को अपना
मैं जान की बांजी लगा दूँगा
उठा हूँ अब जलाने को
लाचारी बेबसी व मजबूरी को
चिंगारी बना पत्थरो की रगड़ से
सावधान हो वर्तमान
अंधकार को चीर कर अब मैं
नव प्रभात बन कर आ रहा हूँ।
काल चक्र के साथ घूमता
वर्तमान में लीन निवर्तमान
स्वराज समता का न्याय चक्र लेकर
मैं आ रहा हूँ।
बीना फुलेरा (विदूषी)
#23अगस्त