कविताअन्य
*उगता सूरज*
कवयित्री माँ मृणालिनी का बेटा पलाश, डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा है। किन्तु स्वभाव है कवियों सा। वृंदा की माँ ने बरसों इस घर की सेवा की थी। माँ के बाद यही उसका घर बन गया। वृंदा पढ़ाई के साथ मृणालिनी जी सहायता में जुटी रहती। पलाश को कब क्या चाहिए, वृंदा के अलावा किसी को पता नहीं। हिरनी सी आँखें, गुलाबी रंग, लंबे केश और सौम्य स्वभाव। कोई कमी नहीं।
मृणालिनी सोचती, "इन बच्चों का रिश्ता दोस्ती से आगे कब बढेगा ? " वह अक्सर बेटे के मन की थाह लेने की कोशिश् करती, " जो खुशी हमें घर की बगिया में महकते फूलों से मिल सकती है, उसको हम बाहर ही ढूंढते रह जाते हैं।"
बेटा अपने ही रंग में कहता, " माँ, ये ज़िन्दगी, चलने का नाम है। मुझे बहुत कुछ करना है और पाना भी है।
धुन का पक्का पलाश अपने सपनों के साथ विदेश जा बसता है। वृंदा अपनी मुँहबोली माँ का पूरा ख़्याल रखती है। दोस्त के कमरे को मंदिर सा सजाती, बिना नागा के।
पलाश अपनी सहकर्मी से ब्याह रचा बेटी जुही का पिता बन जाता है। वृंदा के रहते माँ की कोई चिंता थी नहीं। लेकिन डॉ बीबी को अपने करियर के आगे कुछ नहीं दिखता।
निराश पलाश, बेटी को साथ लिए वतन लौट आता है।
घर में पूर्वतः सब सामान्य था। वृंदा, अपने दोस्त व उसकी बेटी की सारी जिम्मेदारियां सहर्ष उठाने लगती है। कुछ ही दिनों में कृशकाय जुही खिल उठती है। रात में जुही को लिपटाए, 'नन्हीं सी परी मेरी लाड़ली' गुनगुनाते वृंदा को देख बॉल्कनी में आ सोचता है, " कैसा अभागा हूँ मैं ? स्वयं पर बिखरे सिंदूरी टेसू फूलों को देख नहीं पाया।"
जाग रही माँ, बेटे की मनोदशा समझ आकरल् उसकी पीठ सहलाती है, " मृग अपनी नाभि में समाई कस्तूरी को अनदेखा कर भटकता रहता है, उसकी खोज में। बेटा, जब जागो तब सवेरा किन्तु उगते सूरज को देखने ख़ुद जागना होता है। "
सरला मेहता