कहानीलघुकथा
निशा अपने मायके आई थी।अपनी बेटी को लेकर पहली बार,पर दरवाजे पर उसे कोई अपना इंतजार करता नहीं दिखा। ना ही किसी ने नजर उतारी। माँ जो नहीं थी, उनका स्वर्गवास हुए तीन महीने बीत गए थे।
दरवाजा खटखटाने पर पिता ने जैसे ही दरवाजा खोला,निशा उनके गले लग गई और उसकी आंखें भर आई। निशा को माँ बहुत याद आ रही थी। पिता ने अपने आप को संभालते हुए उसे अंदर आने को कहा। निशा को घर बहुत ही सूना सूना लग रहा था। मां की चूड़ियों की खनक कहीं पर भी सुनाई नहीं दे रही थी। पिता ने निशा की हर सुख सुविधा का ध्यान रखा और नौकर चाकर की व्यवस्था कर दी। ताकि निशा को कोई परेशानी ना हो पर निशा को सुख सुविधाएं नहीं माँ चाहिए थी। जिससे वो जी भर कर बात कर ले, अपनी सुख दुख बांटे।
पहले जब भी निशा मायके आती थी माँ उसकी जरूरत की चीज पहले से ही लेकर रखती थी, जैसे उन्हें पता हो कि निशा को क्या चाहिए। अपने हाथों से निशा का मनपसंद भोजन भी बनाती,निशा के सर में तेल लगाती।निशा भी हमेशा एक छोटी बच्ची की तरह मां से ही लिपटी रहती। पिता देखकर सिहाते रहते थे मां बेटी का प्यार।पर आज दोनो ही अकेलापन महसूस कर रहे थे। निशा के हंसते मुस्कुराते पिता एकदम से गंभीर हो गए थे।दोनों बहुत देर तक एक दूसरे के पास तो बैठते लेकिन चुपचाप। बातें तो जैसे खत्म हो गई थीं।
एक दिन नील ने निशा को फोन किया और कहा "यार वापस आ जाओ, घर में सब याद कर रहे हैं। मैं कल लेने आ रहा हूं"। निशा ने भारी मन से हां तो कह दिया पर वो अपने पिता को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। परंतु ससुराल के प्रति उसकी कुछ जिम्मेदारियां भी थीं।
आज निशा की विदाई की घड़ी आ गई थी। निशा नील के साथ वापस ससुराल जा रही थी,अंदर से निशा को ऐसा लग रहा था कि बहुत कुछ छूटा जा रहा है। मां के ना रहने से उसका मायका कहीं खो गया था। किसी ने सच ही कहा है "मां से ही मायका होता है"।
( स्वरचित)
शालिनी शर्मा"स्वर्णिम"
इटावा, उत्तर प्रदेश