कहानीलघुकथा
*चोर दरवाजा*
सेठ दीनदयाल जी बेटी स्वर्णा का विवाह उनकी ही हैसियत वाले खाते पीते घर में करना चाहते हैं। बेटी का इरादा जान वे उसकी पढ़ाई बंद करा सख्ती बरतने लगते हैं। स्वर्णा वैसे भी माँ की घर में स्थिति देख व्यथित है। विदुषी माँ अपना मनचाहा कुछ कर नहीं सकती। बस पति के आदेशों का पालन करना ही उसकी नियति है।
स्वर्णा दिल की बात माँ से कहती है, " माँ, सुबोध को आप भलीभाँति जानती हैं। वह पढ़ा लिखा अवश्य है किंतु लेखन में अपना भाग्य आजमाना चाहता है। मैं प्रशिक्षण लेकर नौकरी कर घर चला लूँगी। सुबोध का काम भी एक दिन जम जाएगा। "
माँ, " बेटी, तेरे बाबा को मनाना पत्थर पर सिर फोड़ने जैसा है। मानती हूँ, पैसा हाथ का मैल है। हाँ, कभी घी घना तो कभी मुट्ठी भर चना। किन्तु मेरी एक शर्त है, जब तक तुम दोनों का काम नहीं जम जाता , मैं आर्थिक मदद करूंगी। यह बात सुबोध को नहीं बताना, उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचेगी।"
माँ बेटी को चुपचाप पीछे गोदाम के रास्ते घर से विदा कर देती है। माँ नहीं चाहती की बेटी भी घुट घुट कर जीए।
स्वर्णा, बाबा की इच्छा के विरुद्ध कोर्ट शादी कर लेती है। अपनी धुन के पक्के सुबोध समझते हैं कि स्वर्णा की ट्यूशन से घर चल रहा है।
विधि का विधान कौन टाल सकता है। माँ की यकायक मृत्यु से स्वर्णा पर दोहरी विपत्तियाँ आ पड़ी। मुफ़लिसी में आटा गीला।
स्वर्णा दुखी हो सोच रही है, "माँ का सिर पर हाथ व भरौसा ही मेरे लिए पर्याप्त था। आमदनी के लिए तो और ट्यूशन बढ़ा सकती हूँ । "
तभी भैया भाभी आते हैं। स्वर्णा अपनों को देख रोने लगती है। भाई, बहन का हाथ अपने हाथों में ले अपने आँसू रोक नहीं पाते।
सरला मेहता