कवितागीत
ओ छलिया ओ छलिया
प्रतीत डोर तोड़ गई तुम
मुझको हाय छल गई तुम
दुनियां की भीड़ में खो गई तुम
तुम मुझे याद बहुत आओगी
ओ छलिया ओ छलिया
बन के प्रियतमा लुभाया मुझे
रोज रोज बातों में उलझाया मुझे
बंदा मैं था सीधा सादा
प्रेम रोग मुझको लगाया ही क्यों
ओ छलिया ओ छलिया
फूल गुलाब भेंट किया मैंने
निर्दयी तुमने कांटों को मेरे लिए छोड़ दिया
नये सफर पर चल पड़ी तुम
हाय मुड़ कर एक बार ना देखा मुझे
ओ छलिया ओ छलिया
मेरी जिंदगी में अब उड़ती है धूल
तेरी बातें सब चुभती है बनकर शूल
तुम चली गई गुबार रह गया
ओ छलिया ओ छलिया