कविताबाल कवितालयबद्ध कविताबाल कविता
"मिट्टी के आँगन"
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कितने मधुर थे वो दिन ,
सुरमई शाम में कोमल थे सबके मन ।
थी जहाँ पेड़ों की शीतल छांव ,
समरता का राग गाता था मेरा गाँव ।
छोटे -छोटे घरों के आगे वो मिट्टी के आंगन ,
सच्चाई सादगी से भरे थे सबके तन मन ।
खपरैल से ढके मकान थे ,कच्चे कच्चे ,
सुविधाएं कम थीं पर दिन थे कितने अच्छे।
मिट्टी के चूल्हें पर पकाती थीं
माँ स्वादिष्ट व्यंजन आहार ,
परिवार संग बैठ खाते थे भोजन
और खट्टा मीठा आचार ।
होता था आज के रेस्टोरेंट से
अधिक जायका लिए ,
देशी भोजन था देह को तंदुरुस्ती दिए।
सुविचारित भाव लिए रहते थे
सभी के संस्कारों में ,
कितनी मिठास घुली रहती थी
बातों के प्रकारों में।
जब दादा दादी से सुनते थे नई नई कहानियां ,
अनमोल शिक्षा देते थे उनके राजा रानियां।
बच्चों के खेल भी हुआ करते थे अनोखे ,
लुका छुपी ,दौड़ ,आंख मिचौली आज किसने देखे ।
मोबाइल ,इंटरनेट ने खत्म कर
दिए सारे खेलों को ,
अलग -अलग रहते बच्चे चोट
पहुँच रही हैं इन कोमल बेलों को।
माना जरूरी है परिवर्तन के साथ आगे बढ़ना,
उतना ही जरूरी हैं रिश्तों में स्थिरता लाना।
मिट्टी के वो आंगन मिट्टी से जुड़ना सिखाते हैं,
रिश्तों में मीठे अहसास जगाते हैं।
मिट्टी के आंगन मिट्टी से जुड़ना सिखाते हैं....!!
#सोभित_ठाकरे