कविताअतुकांत कविता
कैसे गुल खिलेंगे
अपने अंधाधुंध विकास और प्रगति को
बढ़ती बिगड़ती चाल को थोड़ा सा विराम दीजिए ।
बचे रहेंगे तो इसी जहाँ के
किसी कोने में फिर मिल जाएंगे ।
धरती को स्वर्ग फिर बनाएंगे।
जो एक बार कर दिया निर्जन इस बाग को
तो खशबू वाले फूल कहां खिलेंगे ।
इस बर्बादी के साये में हम खुद से खुद तो मिल लेंगे ।
भावी सन्तानों के लिए किन विचारों को छोड़ेंगे ।
सोचा तो हमनें चाँद ,मास ,ब्रह्मांड का भी है ,
धरती का कब सोचेंगे ?
मिट गया ये आशियाना तो
सम्भलने वाले मौके कल न मिलेंगे ।
क्यों नहीं सोचा ?
धरती के बदन को क्यों इतना नोंचा ?
घावों से भरते रहे हम ,
विकास का बोझ ढोते रहे हम ।
अवसर है अभी रोक लो खुद को ,
और अपने ध्वंसावशेष को ।
जख्मों की शैय्या पर लेटी हैं कायनात
करवट बदलते ही छा जाएगा अंधकार........
प्रलय आने से पहले इन जख्मों को कैसे भरोगें।
अंधे विकास के पथ पर कब चलोगे ।
देखो और समझ जाओ ...
प्रलंभ और प्रलंभ .....में कैसे गुल खिलेंगे ?