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डाकिया - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

डाकिया

  • 237
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विषय,,, डाकिया
शीर्षक,,
पाँती प्यार भरी

दादी के पूजाघर के पास रेक में उपन्यास एवं पत्रिकाओं के साथ एक पुलिंदा भी रखा है। दादी अक्सर उसे खोलकर पड़ती रहती हैं। चीनू मीनू आश्चर्यचकित हो पूछते , " इसमें है क्या दादी कि आप कभी ख़ुशी, कभी गम में डूब जाती हो। "
दादी चश्मा ऊपर चढ़ा डाँटती हैं, " अरे शैतानों, दादी से मज़ाक करोगे। बेटा ये पत्र हैं,,,तुम्हारी भुआ के, मेरे माँ बाबा व भाई बहन और,,,।"
" हाँ और,,, दादाजी के, है ना। " शरारती चीनू बोलने से नहीं चूकता। पर ये पत्र क्यों लिखते थे ? झट से फोन पर बात नहीं कर सकते। हमसे तो परिक्षा में ही पूछते हैं। और हाँ, लिफ़ाफ़े में राखी भेजते हैं कोई कार्ड या फ़िर सरकारी कागज़।"
" हाँ चीनू, अब न तो वो पत्र रहे और न प्यार। बस फोन पर कर लो हेलो हाय। देखो ये पोस्ट कार्ड व अंतर्देशीय पत्र। दूर दूर रहने वाले लोग लिखते थे। लाल डब्बा देखा है न, उसमें डाल देते। फ़िर डाक विभाग छंटाई कर भेज देते हैं। आख़री काम डाकिया बाबू का जो घर घर जा बाँटते हैं।"
दादी समझाती है।
" हाँ हाँ दादी, एक गाना है न,,,डाकिया डाक लाया,,,।" मीनू बताती है।
दादी कहती है कि पत्रों में प्यार भरा रहता है। जब भी किसी की याद आए पत्र निकाल कर पढ़ लो।
सरला मेहता

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दादी की परी
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