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आरम्भ का अंत - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

आरम्भ का अंत

  • 203
  • 3 Min Read

*आरम्भ का अंत*

मैं कभी अधीरा नहीं रही
के तुम मेरे हो जाओ प्रिये
मेरी राहें चुन ली थी मैंने
खुशियाँ बिखरी हुई थी
फूलों से सँवारी थी मैंने
क्यूँ बो दिए काँटे तुमने
दिल तो यूँ भी टूटा ही था
फ़िर ज़ख़्मी भी कर दिया
वादे करके भूल गए सब
सेहरा बाँधा और के साथ
मेरी यह फ़ितरत है नहीं
जो करती हूँ मैं आग़ाज़
अंजाम भी उसे देती हूँ
तुम्हारी तरह नहीं हूँ मैं
तू नहीं और सही कहना
फ़िर भी यही दुआ है मेरी
इस आरम्भ का अब अंत
कभी भी नहीं करना प्रिये

सरला मेहता

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Ashutosh Tripathi

Ashutosh Tripathi 4 years ago

जी, आदरणीया जी।बहुत सुंदर रचना प्रस्तुति,किंतु शीर्षक का नाम ही अंत का आरंभ कर लें सादर🙏🏻🙏🏻

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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चालाकचतुर बावलागेला आदमी
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