कविताअतुकांत कविता
*मैं खूंटे से नहीं बंधूगीं*
मेरी एक दीदी थी
सुंदर सर्वगुण सम्पन्न
आज्ञाकारी सबकी
बाँध दी गई एक खूंटे से
चढ़ गई दहेज की बलि
मुझे नहीं बनना वैसी
मेरा अपना अस्तित्व है
देखूँगी परखूंगी सब
फ़िर लूँगी निर्णय
कर्तव्य से पीछे ना हटूँगी
अधिकार भी हैं मेरे
स्वाभिमान पर ठेस
नहीं सहूँगी मैं कभी
जिस दिन भी हुई आहत
चल दूँगी अपने घर को
नहीं मिली वहाँ ठोह
सजा लूँगी मेरा आशियाँ
निखारूँगी व्यक्तित्व मेरा
जीवन में राहें और भी हैं
अन्याय सहन करना
न्याय नहीं हो सकता
हौंसलों के पंख हैं
उड़ान भर सकती हूँ
पर खूँटे से नहीं बंधूगीं
सरला मेहता