कविताअन्य
लघुकथा:-पारस पत्थर
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बहुत देर से भोजन के लिए प्रतीक्षारत पति के सामने थाली रखते हुए पत्नी बोली लिजिए खाइए और खाकर बताइए कैसी बनी है।
पत्नी को खुश करने के लिए उसने चुटकी लेते हुए कहा बनाते समय खाने का सुगंध तो अच्छा ही आ रहा था निसंदेह अच्छा ही होगा।
पहला निवाला लिया थोड़ी बहुत मुंह चलाई और निगल गया हाथ का इशारा किया बहुत बढ़िया तुम्हारे हाथों का जवाब नहीं।
दूसरा निवाला लिया तो एक करीब पांच मिलीमीटर का पत्थर का टुकड़ा दाल में छंटाई के दौरान रह गया था वह उसके मुंह में चला गया। बड़ी जोर की कड़ड़ की आवाज हुई। मुंह के अंदर हाथ डाला तो बड़ी मुश्किल से हाथ आई और दांत टूटते-टूटते बचा।पत्नी वही बैठी थी पति को और किसी चीज की जरूरत हुई तो परसन देने के लिए।
पति पत्नी से बोला हाथ आगे बढ़ाओ तो।
"पत्नी अब क्या है? चुपचाप खाना खाइए जब देखो तब मजाक ही मजाक मुझे अच्छा नहीं लगता।
अरे भाग्यवान लो तो सही पत्नी हाथ बढ़ा दी तो पत्थर रख दिया ये क्या हैं?
पति 'पारस-पत्थर' संभाल कर रखना और मौका कुमौका सोना निकालते रहना! एक काम ठीक से नहीं कर सकती। गुस्सा होते पत्नी बोली दाल में से कंकड़ पत्थर तो आपने ही चुना था, अब कंकड़ रह गई तो मेरा क्या दोष।
थाली उठाकर अचान की ओर चली गई और भूखे पेट ही पति बेचारा हाथ धोने चल दिया।
©भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"