कहानीलघुकथा
विषय
एक शहर अपना सा
शीर्षक
*बस दो कदम*
नाज़ो से पली नित्या अपने ससुराल में ज़रा भी खुश नहीं। सब पराए लगते। बस माँ पापा का लाड़ व सहेलियों की चुहलबाजियाँ याद कर उदास रहती। प्यार करने वाला पति अमेय उसे खुश रखने का पूरा प्रयास करता। बाबा ने उसके कमरे में टी वी लगवा दिया। माजी उसकी पसन्द पूछकर ही सब कार्य करती। फ़िर भी नित्या को कुछ भी अपना सा नहीं लगता। मानो वह किसी पराए शहर में आ गई हो।
पत्रिका के पन्ने पलटते उसने बाबा को समझाते सुना, " देखो अमेय, तुम्हारे नए बॉस का काम करने का तरीका व स्वभाव पुराने बॉस से अलग है। लेकिन वो तुम्हारा ध्यान रखते हैं और राय भी लेते हैं। अपनी तरफ़ से उन्होंने कुछ नया लागू नहीं किया है। बॉस दो कदम पीछे जाकर नए स्टाफ़ से समझौता कर रहे हैं। तुम भी दो कदम आगे बढ़ो।"
बाबा की बाते सुन नित्या उठी व अपना नित्य का व्यवहार छोड़ पूजाघर की ओर चल पड़ी, " माजी , आपकी चाय में अदरक डालूँ या इलायची।" बहु को यूँ चहकते देख वे हँसते हुए कहती हैं, " जो तुम्हें पसन्द हो। और हाँ , पकोड़े नहीं खिलाओगी? अमेय व तुम्हारे बाबा को खूब पसंद हैं।"
अचानक आए इस परिवर्तन को देख अमेय भी मौके पर चौका लगा बैठा, " अच्छा बताओ मूवी देखोगी कि डिनर पर चलना है। लेकिन आज कोई बढ़िया वाला सूट पहनना। साड़ी का लफ़ड़ा नहीं।"
अमेय का लाया सूट पहनते नित्या सोचने लगी, " जब तक सबको अपना नहीं मानूँगी, अपनेपन का अहसास भी नहीं पाऊँगी। "
और वह गुनगुनाने लगी, " खुशबू की ग़र ख्वाइश है तो बगिया लगाइए,,,।"
लगाइए।"
सरला मेहता