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भोर में विभोर - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

भोर में विभोर

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भोर में विभोर

जब बारात तारों की
मेरे आँगन उतरती है
रात गुलज़ार करती है
चाँद से बात होती है

तन्हा जब मैं होती हूँ
तस्सवुर में खो जाती
आसमां व मेरे दिल में
दो दो चाँद होते हैं

नीले गगन में कई कई
आकृतियां उभरती हैं
बादलों की बग्गी से
पी की बानगी दिखती

बिंदिया टीका लाई परियां
नीली चमचम चुनरिया
करधूनी भुजबन्द चूड़ियाँ
हीरे जड़ी हैं झांझरियां

दरवाजे की दस्तक से
ज्यों सपने से जागी में
सरहद से प्रीतम आए
भोर में मैं विभोर हुई
सरला मेहता

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