कहानीलघुकथा
विषय:-*ओस की बूंद*
*हसरत की हक़ीक़त*
वातावरण की नमी के तो भई नख़रे ही निराले हैं। अनन्त वायुमंडल की सैर का मज़ा लेते इठलाती है।
नमी :- ए क्षणभंगुर ओस की बूंद ! इतना ना इतराओ बहन। तुम्हें तो बस जाड़े में इजाज़त दी है रब ने।
ओस:- ओहो दीदी, मैं ठहरी नाज़ुक कोमलांगी,
सारे कवि शायर मुझ पर फ़िदा है। बिन मेरे कलम ही नहीं चलती।
नमी:- अरे ओ ! छुई मुई छबीली, इस रूप पे इतना ना ग़ुरूर कर,ये इक पल में ही ढल जाएगा। पता भी है, मेरे कारण ही ये बारिश की बूंदे जग को निहाल करती है। और पवन चक्र बनता है। ज़रा विज्ञान तो पढ़ कर देखो।
ओस:- अच्छा अच्छा, हेकड़ी मारना कोई तुमसे सीखे। जब हरे हरे पत्तों पर में नाचती हूँ तो बच्चे व पँछी कैसे चहकने लगते हैं। मुझ पर लोग नँगे पैर चलते हैं, अपनी सेहत और आँखों के लिए।
नमी:- हाँजी, ठीक है पर हो सपनों जैसी ही ना। लोग बेचारे सपने देख भर पाते हैं। पूरे कभी नहीं होते। अब बोलो।
ओस:-जा जा, अपने कलाम साहब कहते थे कि सपने देखना कभी मत छोड़ो। तभी तो कुछ पाने की हसरत हक़ीक़त बनेगी।
सरला मेहता