कहानीलघुकथा
*दो धारी तलवार*
करिश्मा जी, अपने नाम के अनुरूप ही हैं, ज़रा करिश्माई। यूँ अपने प्रथम परिचय में ऐसी छाप छोड़ती कि सबको अपना बना लेती हैं। ऐसे ही तिकड़म लगाई थी बेटे के ब्याह के सम्बन्ध में। खूब बढ़चढ़ कर सपने दिखाए,,,बहु के लिए कोई कमी नहीं। बैंक से मन माफ़िक पैसे निकालो, जो चाहे ले आओ। लेकिन ब्याह के बाद की पाबंदियों ने बहु का जीना हराम कर दिया।
कहते हैं न श्वान की पूँछ टेढ़ी ही रहती है। ऑफ़िस में भी अधीनस्थों के साथ यही चालें चली। किसी को गिराने के लिए मनगढ़ंत ग़लतियाँ निकाल किसी का भी प्रमोशन रोक देना उनके बांए हाथ का खेल है।
संस्था के स्थापना दिवस हेतु कार्य विभाजन की सूचि चस्पा कर दी। हाँ , संस्था प्रमुख ने कार्य उन्हें ही सौपा था। एन मौके पर गड़बड़ियों होना ही था। कर्मचारियों ने इस बार अपना करिश्मा दिखाया। बॉस की नाराज़ी सहनी पड़ी मेडम जी को। आख़िर कलाई तो खुलना थी। दो धारी तलवार ख़ुद के लिए भारी पड़ सकती है।
सरला मेहता