कहानीलघुकथा
विधा-कहानी
शीर्षक-वापसी का मौसम
"तुझे तो मैं देख लूँगा..."
गुर्राहट भरे स्वर में दीवार पर प्रहार करते अपने किशोर बेटे आशीष की हालत देख तड़प सा गया आदित्य का मन।
"बेटी को तो राखी सावन में ले आती है मगर बेटा भटक जाये तो उसकी वापसी का कोई मौसम नहीँ होता।"
अनुशासन के कड़े हिमायती आदित्य ने कब पत्नी की सुनी।इकलौते बेटे को किस क़दर आदर्शों में पाला कि उसकी कभी चूँ भी न निकली पिता के सामने।
दबा हुआ उसका क्रोध और प्रतिकार उसे दोहरे व्यक्तित्व वाले इन्सान में बदल चुका था।दिल के टुकड़े की आँखों से दिल का नामोनिशान ही गायब था मानो।
सख़्ती की भिंची मुट्ठियों में बहुत कुछ कुचल चुका था,आज कुचला हुआ वजूद हिंसक हो चुका था और उसकी सख़्ती बेबसी में बदल गयी थी।
अपनी बेबसी पर लाचार और हताश वह निरूपाय ही खड़ा था कि डॉक्टर का हाथ अपने कन्धे पर पाया।
"मिस्टर आदित्य! भरोसा रखिये..अभी देर नहीँ हुई,जो काम सख़्ती से नहीँ होते वहाँ नरमी काम कर जाती है,रिश्ते सख्ती ही नहीँ नरमी के भी मोहताज़ होते हैं।
उसने अपनी कसी मुट्ठियाँ खोल दी अब वे स्निग्ध हथेलियों का रूप ले चुकीं थी। देर तो लगी पर असर दिखने लगा।
आशीष का सर्द दिल अब धड़कने लगा था ,वापसी के मौसम की दस्तक अब साफ़ सुनाई देने लगी थी।
सुमिता शर्मा
कानपुर