कविताअन्य
"आख़री मोह्बत"
तिनको सा बिखरा था,तुमने मुझे संवार दिया
मैं जब भी हुआ तन्हा, तुमने आकर थाम लिया
जिस्म तो था लेकिन रूह ढूंढता था मैं मगर
तुम्हारे अक्स में अपनी रूह का दीदार किया
तुम मेरी पहली मोहब्बत तो बन न सकी
तुम ही आखरी मोहब्बत हो यह जान लिया
अब चाँद सितारे तोड़ के क्या लाऊँ
जब चाँद तुम्हारे मुखड़े को मान लिया
अब मैं तुम्हें घुमाने कहाँ लेकर जाऊँ
जब अपना सँसार तुमको मान लिया
तुम मेरी पहली मोहब्बत तो बन न सकी
तुम ही आखरी मोहब्बत हो यह जान लिया
अब महँगे तोहफ़ों से भी तुम्हें कैसे सजाऊँ
जब तुम्हारे जीवन को गहना मैने मान लिया
तुम्हारी राहों में कभी फूल तो न बिछा सका
लेकिन पग के हर काँटे को मैंने निकाल दिया
तुम मेरी पहली मोहब्बत तो बन न सकी
तुम ही आखरी मोहब्बत हो यह जान लिया
आख़री साँस तुम्हारी बाहोँ में ही निकले
मैंने ऐसा अपनी साँसों से है करार किया
मेरा दिल हमेशा तुम्हारी धड़कनो से धड़के
मैंने ऐसे है अपने दिल को बेकरार किया
तुम मेरी पहली मोहब्बत तो बन न सकी
तुम ही आखरी मोहब्बत हो यह जान लिया
हर सहर हर पहर तुम्हारा ही दीदार करूँ
हर शब जागकर आँखों ने इंतेज़ार किया
मेरे रगों में दौड़ते लहू के कतरे कतरे ने
हर पल इश्क़ है तुमसे बेमिसाल किया
तुम मेरी पहली मोहब्बत तो बन न सकी
तुम ही आखरी मोहब्बत हो यह जान लिया
- Vivek Kapoor