कहानीलघुकथा
*वो,,,मोर पंख*
बीस वर्ष के अंतराल में केशव के सपनों के शहर में कई बदलाव आ गए। कहाँ ढूंढे अपनी मयूरा को। उसे बस यही याद रहा,,,किसी पीपल के पेड़ से लगा बगीचे से घिरा उसका छोटा सा घर था। वृद्ध माँ बाबा भी शायद अब,,,। सदा मोरपंखी रंगों की साड़ियाँ पहन किसी स्कूल में पढ़ाने जाती थी। लेखन खूब करती थी, वह भी मोरपंखी लेखनी से। उसके पास पहचान के नाम मयूरा का दिया एक मोरपंख ही था।
विजातियता आड़े आ गई और दो चाहने वाले बिछड़ गए। केशव विदेश में बस गया। कोई खबर ना पत्तर। वह अपने बालों की सफ़ेदी देख सोचने लगा, " मयूरा तो दादी नानी बन गई होगी ? अब कैसी लगती होगी ?
अपनी अधूरी कहानी लिए गली गली भटकते उसे एक पुराना सा पीपल का पेड़ दिखा । कदम वहीं ठिठक गए।
हल्का नीला सा पुता घर, बगीचे में मोरनुमा गमले देख दरवाज़े पर दस्तक़ दी। असमानी साड़ी में एक श्वेत कुन्तला साध्वी सी महिला आई व पूछा , "आप कौन ?"
सवाल के उत्तर में आगंतुक ने जेब से मोरपंख निकाला। और विहल हो बोला, " मयूरा ! मैं हूँ। तुम अभी तक अकेली,,,। "
अपने आँसुओं को रोकते बोली, " तुम मुझे अकेली ही छोड़कर गए थे ना। फ़िर साथ किसका ?
सरला मेहता"