कविताअतुकांत कविता
तुम डोर मेरी
हाँ तुम डोर हो मेरी
जिससे मैं बंधी हूँ
जीवन भर के लिए
साथी हूँ पर ऐसी नहीं
जिसे तुम जैसे चाहो
जिस दिशा में चाहो
उड़ा सकते हो
मैं स्वच्छंद पँछी
मर्ज़ी से उड़ने वाली
खुले आकाश में
पर पतंग नहीं हूँ
तुम हो दाता मेरे
छत की छाया देने वाले
दीवारें ऐसी नहीं
जिसमें रोशनदान न हो
दरवाजों के तालों की
चाबियाँ मैं रखूँगी
मकान की दरकार नहीं
एक अदद घर चाहिए
आँगन व बगीचे वाला
नाम भी हो नेमप्लेट पर
पर पतंग नहीं हूँ
मैं सब कुछ हूँ तुम्हारी
आन बान व शान हूँ
पर बाकी सब तुम्हारा
बच्चे घर ओहदा
मेरी अस्मत इज़्ज़त
लेकिन तुम किसके?
माँ बाबा के
एक पराया घर छोड़
यहाँ भी हूँ पराई
कोई वजूद भी है मेरा?
मैं पतंग नहीं हूँ
जैसा चाहोगे करूँगी
तुम्हारी पसन्द का
मान मर्यादा रखूँगी
ख़ुशी से फ़र्ज निभाऊंगी
कुछ थोपना नहीं मुझपे
सारी दिमाग़ी दुनिया
अपने महकमे में रखना
दिल का सुनूँगी व करूंगी
हिसाब किताब से
दूर ही रखना मुझे
मैं पतंग नहीं हूँ
सरला मेहता
स्वरचित