कहानीलघुकथा
* बदलती मर्यादाएँ *
शगुन जी जिन संस्कारों में पली बढ़ी, ससुराल में भी वह उन्हीं का पालन कर रही हैं। बेटी कुमकुम की सासू माँ जब भी मिलती खुश हो कहे बिना नहीं रहती,"आपकी बेटी ने तो मेरे पूरे परिवार को ही संस्कारित बना दिया।"
बेटे सजग ने नौकरी लगते ही ऐलान कर दिया, " मैं अपनी बचपन की दोस्त अनाया से शादी करना चाहता हूँ।"
सब घर की मुखिया की ओर देखने लगे। शगुन ने तसल्ली से ज़वाब दिया, " सजग ने कुछ सोच समझ कर ही निर्णय लिया होगा। जीवन भर साथ के लिए स्वभाव व रुचियाँ मिलना चाहिए। कर्मकुंडली मिलाना ज़रूरी है। दोनों साथ काम करते हैं और उनके रक्त समूह भी शादी की इजाज़त देते हैं।" सुनकर सब हक्के बक्के रह गए।
सादगीपूर्ण रीति रिवाजों के साथ दुल्हन का गृह प्रवेश हो गया। अगले दिन अनाया साड़ी सम्भालते अपने कमरे से निकल चाय बनाने लगी। सर से पल्लू सरका जा रहा था। शगुन प्यार से बोली, " अन्नू , जाओ सूट पहनकर आओ।"
घर में दूसरा धमाका,,, ससुर जी ने टोका, " सर पर पल्लू तो डलवा दो।"
शगुन पक्ष लेते बोली , "शरम आँखों में होती है। फ़िर आते ही उसने झुक कर सबका अभिवादन किया, सबको चाय दी,,, और क्या चाहिए।"
और हद हो गई, कम्पनी यूनिफॉर्म में मेडम जब जाने लगी। लेकिन शगुन के सामने कोई मुहँ नहीं खोल पाए।
बहु बेटे के जाने के बाद भुआजी अपने व्यंगबाण बरसाने लगी। शगुन ने सबको बैठाकर सुकून से समझाया, " हाँ, मैं मानती हूँ कि अनाया हमारे ढर्रे पर नहीं चल पा रही है, लेकिन इन आठ दिनों में अनाया ने कभी पलटकर ज़वाब नहीं दिया। सबको पूरा सम्मान दिया। वह नौकरीपेशा होकर भी रसोई आदि कार्यो में निपुण है। विजातीय होकर भी घर की सभी परम्पराओं को तवज्जो देती है। और क्या चाहिए हमें। समय के साथ ही मर्यादाएँ भी सुविधानुसार बदलती हैं। "
सरला मेहता