कहानीलघुकथा
पत्थर की लकीर
दो पीढ़ियों से परिवार में कुल का नाम रोशन करने वाले बेटे का आगमन नहीं हुआ। बेटे अथर्व की एक बेटी प्रिया थी। इस बार बहु शुचि की गोद में बेटी व बेटे के रूप में जुड़वाँ बच्चे आए। दादा दादी को मिठाइयां बांटने से फुर्सत नहीं।
दादी कहती परी ही अपने साथ कान्हा लाई है। तीनों बच्चों में परी पर माँ शारदा की ऐसी कृपा रही कि वह हमेशा अव्वल आती रही। इस बार तो डॉक्टरी परिक्षा में भी पास हो गई। दादी तो बस अड़ गई, " बेटी से नौकरी नहीं कराना। सीधे बी ए पास कराओ और ससुराल रवाना करो। सब समझा कर थक गए, पर दादी तैयार नहीं। कान्हा ने भी अपनी लाड़ली बहना का पक्ष लिया," मैं अगले साल ज़रूर पास हो जाऊँगा। मेरे लिए परी का नुकसान क्यूँ ?"
सब घरवालों की दलीलें सुनकर दादी ह्रदयाघात से बेहोश हो गई। परी ने उसी वक़्त गोली मुँह में डाली और छाती दबाती रही। पूरे समय अस्पताल में भी दादी की सेवा में जुटी रही। चूकिं उसने डॉ बनने के लिए दिनरात पढ़ाई की थी, उसे अच्छा ज्ञान था।
दादी की सेहत सुधरने पर परी ने वचन दिया, "मैं कान्हा को पढ़ाऊंगी।अगले साल वह अवश्य पास होगा। "
दादा जी ने भी दबाव डाला, " आज परी के कारण ही तुम जीवित हो। हमारे घर में डॉक्टर तो होना ही चाहिए। मेरा छोटा मोटा इलाज़ तो मेरी पोती चुटकी में कर देती है।"
शुचि ने तो ऐलान ही कर दिया, " माजी मैंने लॉ करके भी आपके कहने से कुछ नहीं किया। आपकी लक्ष्मण रेखा मैंने पार नहीं की। लेकिन अब तो आपको ,,,।"
अथर्व हँसते हुए टोकता हैं, " अरे ! क्या मेरी माँ ने पत्थर की लकीर थोड़ी न खींची है।" और सब हंसने लगते हैं।
सरला मेहता