कहानीलघुकथा
विषय,,,पतंग व डोर
शीर्षक,,,
कटी पतंग
संक्रांति पर्व पर आधार, बेटी बयार को पतंग उड़ाना सिखाते सिखाते
कहने लगे," अरे धरा , आओ इधर देखो बेटी की पतंग आकाश छू रही है। मुझे जैसे ही तरक्की मिली ,मैं भी तुम्हें इसी पतंग की तरह देश विदेश की सैर कराऊंगा। "
धरा ने तल्ख़ी से ज़वाब दिया, " कॉलेज के दिनों में ख़ूब घूम चुकी हूँ, वह भी अपनी मनमर्ज़ी से। और स्कूल में जब जॉब करने लगी, कइयों को अपने दम पर दुनिया दिखा दी। बच्चे अभी भी याद करते हैं।"
" देखो, मैं हूँ परिवार का आधार यानी मुखिया तो मैं सबकी ख़ुशी के लिए कर्तव्य तो निभाऊंगा ना।" आधार, अधिकार पूर्वक बोला।
धरा थोड़ी गम्भीर मुद्रा में कहने लगी, " ज़नाब मैं हूँ धरा, मुझे किसी आधार यानी सहारे की ज़रूरत नहीं। मुझे ऐसी पतंग नहीं बनना जिसकी डोर किसी और के हाथ में हो। मैं तो वह उचका हूँ जिससे डोर व पतंग दोनों जुड़े हैं। हाँ, तुम मेरे प्यार का आधार हो। तुम्हारा साथ, शक्ति और सुकून देता है निर्भयता से आगे बढ़ने के लिए। बेटी का नाम भी बयार रखा जो पतंगों को अपनी इच्छानुसार उड़ा सके। ना मुझे, ना बेटी को कटी पतंग का नाम देना है।
सरला मेहता