कहानीलघुकथा
चित्र आधारित आयोजन
लघुकथा
खुरदरा ज्ञान
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"बहुत विद्वान व्यक्ति हैं ।हर विषय का ज्ञान रखते हैं ।"
"दिमाग तो जैसे कंप्यूटर है ।साथ ही बेहद विनम्र ,शांत व सुलझे व्यक्तित्व के स्वामी हैं ।"
दिलीप ने प्रोफेसर मूर्ति का परिचय देते हुए कहा ।
प्रोफेसर मूर्ति ने जब अपना व्याख्यान पूरा किया तब सारा हाल तालियों से गूंज उठा ।उनका शोध आलेख बहुत शानदार था ।उनके व्यक्तित्व की गरिमा ने सभी को प्रभावित किया ।
विनय भी प्रोफेसर मूर्ति के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ ।इतना अधिक की उसने मूर्ति सर से मिलने के लिए उनके घर जाने का निश्चय कर लिया ।
क्लासेज खत्म होने के बाद विनय मूर्ति सर से मिलने उनके घर जा पहुंचा ।दरवाज़े पर पहुंचते ही वह डोर बेल की ओर बढ़ा ही था कि कुछ आवाज़ों के शोर से ठिठक गया ....
" तुम ये कैसे कर सकते हो ?मेरी मेहनत को अपना कहते हुए शर्म नहीं आयी !कितनी मेहनत से मैंने यह शोध कार्य किया और तुमने इसे खुद का लिखा कार्य कह कर प्रकाशित करवा लिया !"
एक स्त्री स्वर की वेदना छन छन कर बाहर आ रही थी ।
"चुप रहो !अनाथ थी तुम ! तुमसे विवाह किया , पढ़ाया !अहसान मानो ! मेरी दया की कद्र करो वरना कहीं सड़ रही होती ।"
प्रोफेसर मूर्ति की दम्भ से गरजती आवाज़ हथौड़े सी प्रहार कर रही थी ।
" तो तुम्हारा मेरे प्रति सारे प्रेम का दिखावा क्या एक अहसान था मात्र दया थी !"
" तड़ाक ! "
ज्ञानवान ,विनम्र ,शांत व सुलझा व्यक्तित्व अपने खोल से बाहर आ कर फुंकार चुका था ।
विनय दरवाज़े से दूर चला गया ।एक स्त्री सामान सहित बाहर आ चुकी थी ।उसके गालों पर मूर्ति सर के ज्ञान की रेखाएं चमक रहीं थीं
" हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती ।खोल में छिपे ज्ञानी का खुरदरापन अक्सर ओझल रहता है ।जब प्रकट होता है तो निर्मल ज्ञान गंगा के नीचे छिपी काई बहुत बदबूदार होती है !"
विनय का मस्तिष्क इन विचारों के ताने - बाने से झनझना रहा था।
डॉ संगीता गाँधी
#9-1-21