Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
'व्यवस्था' - Lalni Bhardwaj (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

'व्यवस्था'

  • 210
  • 14 Min Read

#२०२०

महोदय, अलविदा #2020 आयोजन के तहत अपनी एक लघु कथा 'व्यवस्था' शीर्षक से और एक कविता 'वक्त कभी ठहरता नहीं' शिर्षक के अंतर्गत भेज रही हूं, इसी आशा के साथ कि साहित्य अर्पण में इन्हें स्थान अवश्य मिलेगा।
सहृदय साधुवाद।

'व्यवस्था'

लॉकडाउन के समय में हर किसी को अपने घर पहुंचने की बहुत जल्दी थी। हर एक निगाह बस के इंतजार में लगी हुई थी ।तभी एक बस आई। भीड़ आपसी दूरी को भूलकर बस में जगह पाने के लिए जद्दोजहद करने लगी। हर कोई बस में चढ़ने और बैठने के लिए सीट हथियाने की कश्मकश में था। धक्कम धक्का हो रहा था। तभी अचानक एक आवाज गूंज उठी ,"हटो, हटो, थोड़ी सी जगह दो ।आप के विधायक आ रहे हैं। उन्हें आगे जाने दो। अभी व्यवस्था ठीक हो जाएगी। शोरगुल मे कुछ ने सुना नहीं, कुछ ने सुनकर अनसुना कर दिया। बस में चढ़ने और सीट हथियाने की जद्दोज़हद चलती रही। कहासुनी बढ़ती रही। धक्कम धक्का के रेले में विधायक किसी तरह बस में चढ़ गए। बस खचाखच भर चुकी थी।
विधायक फ्रंट सीट के पास पहुंचे। उस पर एक अपाहिज बैठा था। विधायक ने डांट डपट कर सीट खाली करवाई," तुम्हें पता नहीं यह सीट विधायक के लिए रिजर्व रहती है" सीट पर से विकलांग व्यक्ति बड़ी मुश्किल से उठा ।विधायक शान से सीट पर बैठ गए। खिड़की से बाहर सिर निकाला और भीड़ को शांत करवाना आरंभ कर दिया। बोले," भाइयों शांत हो जाइए ,संयम रखिए, धक्कम धक्का मत कीजिए, परस्पर दूरी बनाए रखिए ।अभी दूसरी बस आ जाएगी। तब तक संयम रखिए। परस्पर दूरी बनाकर लाईन में खड़े हो जाइए।आप व्यवस्था को क्यों बिगाड़ रहे हैं।" विधायक अपनी भाषण नुमा आवाज में बोलते जा रहे थे। इसी बीच ड्राईवर ने बस स्टार्ट कर दी ।
विधायक महोदय ने खिड़की से सिर भीतर कर लिया और आराम से पैर पसार कर , सिर पीछे टीका कर, निश्चिंत मुद्रा में बैठ गए। क्योंकि व्यवस्था ठीक हो गई थी ।

"वक्त कभी ठहरता नहीं "
*****
क्यों ठहर गई है जि़न्दगी,
क्यों ठहर गया है आलम ।
पूछा जब अपने मन से,
बोल उठा वह एकदम।
भूल गए हम अपनी संस्कृति,
अपना आचार व्यवहार औ'दुलार।
कव्वे चलने लगे हँस की चाल,
भूल गए सब अपना भी हाल।
करो याद वह दिन-जब अम्मा
बाहर के जूते भीतर नहीं लाने देती थी,
हाथ जोड़ कर ही सदा सबका,
आदर सत्कार करने को कहती थी।
खाना खाने से पहले वह सदा,
हाथ हमारे थुलाती थी।
सुबह सवेरे उठा कर हमको.
सबको नमन् करना सिखलाती थी।
छोटी छोटी बचत के लिए ,
गुलक हाथ में थमाती थी ।
कुछ आडे वक्त के लिए बचालो,
चिंटी की सीख देकर समझाती थी।
तुमने बदला आलम को,
पश्चिम का ओढा़ आँचल।
अब जब आए ठोकर खाने को,
लगे पाठ नमस्ते का समझने समझाने को।
अपने संस्कार और अपनी संस्कृति के.
अथाह सागर में गोते लगाकर तो देखो,
बटोरोगे जितने भी हीरे मोती,
जीवन को देंगे वह गति।
ठहरा जीवन फिर दौड़ पाएगा।
आलम भी खु़शहाल हो जाएगा।
वक्त कभी ठहरता नहीं,
बदलता है बस करवट,
नव दिन नव पाठ पढा़ने को,
अतीत से सीख लेकर -
भविष्य उज्ज्वल बनाने को।
यह वक्त ही है जो कभी ठहरता नहीं

ललनी भारद्वाज
सी 3 ए/।9ए
जनक पुरी,
नई दिल्ली।

logo.jpeg
user-image
दादी की परी
IMG_20191211_201333_1597932915.JPG