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और कलम चल पड़ी नहीं उड़ने लगी
कलम चलाने के लिए संवेदनाओं का अहम स्थान है। यूँ तो मेरी कलम कभी बैठी नहीं। जब लिखना नहीं आता था तब माँ के मांडने कागज़ पर उतर आते थे।
पिताजी की कलम खूब चलती थी। मेरे लिए यह खून वाला रिश्ता है।
स्कूली शिक्षा के दौरान प्रश्नों के उत्तर अनोखे ढंग से लिखने का शौक था।हमेशा अव्वल आने वाली के लिए अपने अपने उत्तरों का आगाज़ व अंजाम काव्यमय होना ज़रूरी था। विद्यालय में छात्रसंघ की अध्यक्षा होने के नाते भाषण आदि लिखना पड़ते।पत्रिका का भी सम्पादन एडिटिंग करना पड़ता। बस सब कुछ सीखती चली गई। कॉलेज में आकर यही सिलसिला जारी रहा। सहेलियों को प्यारे से पत्र लिखते स्वतः ही गद्य पद्य बन जाता।और एक बात यह कि जो शांत व एकांतप्रिय होता है,उसे कहीं तो स्वयं व्यक्त करना होता है।
शिक्षा विभाग में सेवा देते उत्सवों हेतु कव्वाली, नाटक आदि लिखने लगी। फिर मेरी स्कूल में सखी थी हिंदी की शिक्षिका मराठे मेडम।उनके देखा देखी पहली कविता लिखी थी जो आज भी याद है,,,
"देखा मराठे मेम को कविता लिखते,
उठाई कलम और लिखने लगी,
कुछ अंग्रेजी उर्दू हिंदी को मिलाकर,
सीख गई मैं गद्य पद्य व तुकबंदी
अपनी मातृभाषा को ही लगाई बिंदी
लेकिन ज़रूरत माफ़िक ही लिख पाती थी। उसी दौरान गाहे बी गाहे कुछ तीर तुक्के रिश्तेदारों दोस्तों के लिए चलने लगे। या किसी अवसर पर काव्यमय कामनाएँ।
फिर ज़िन्दगी की उधेड़बुन में कलम भी सुस्ताने लगी। किन्तु जीवन के छः दशक बाद कलम चल निकली। फिर तो ऐसा जुनून सवार हुआ कि दिमाग उसी में लगा रहता। जब भी ,जो भी विचार आता झट से नोट कर लेती हूँ। वामा साहित्यिक मंच ने कलम को और भी तीक्ष्ण कर दिया।और इस आभासी संसार में आकर तो बस मत पूछिए। फिर मिल गया साहित्य अर्पण । तो अब कलम को आराम की भी फुरसत नहीं। अब देखती हूँ कि यह कब तक चलती है।
सरला मेहता