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होली दिवाली - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

होली दिवाली

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" दिवाली होली "

आकर्षक व्यक्तित्व की धनी सुष्मिता जी परमार ,अनाथालय की अधीक्षिका नियुक्त हुई हैं। पहली बार इतनी जिम्मेदारी का कार्य करना है। वे झिझकती हुई कार्यालय आती हैं। वहाँ शहीदों की तस्वीरें देख उन्हें अपने मेजर परमार सा याद आगए। वह काला दिन आज तक नहीं भूल पाई हैं,,,सरहद पर तैनाती के दौरान वो ऐसे लापता हुए कि आज तक कोई सुराग नहीं मिला। पति वियोग में अर्धविक्षिप्त सी सुष्मिता दो दिनों तक बेहोश रही। इसी बीच अपने दो वर्षीय बेटे उत्सव का ध्यान नहीं रख पाई। वह भीड़ भरे माहौल में कहीं गुम हो गया। पति का विछोह भूल वह बावली सी यहाँ वहाँ चक्कर लगाती रही। पुलिस अपना कार्य कर रही थी। थक हार कर बस किसी चमत्कार की आशा के कोई चारा नहीं था। कोई सहारा था तो माँ शारदा। वे हमेशा ही
परछाई की तरह बेटी के साथ रहती।
एक दिन वे सुष्मिता को अनाथालय ले जाती हैं। नन्हें बच्चों में उसे अपना बच्चा ही दिखाई देता है।
बस सुष्मिता तभी से अपना सारा प्यार अनाथ बच्चों पर लुटाने लगी। और आज से वह बच्चों के साथ रहेंगी। वे पूरी इमारत का निरीक्षण करने निकल पड़ती हैं। सभी बच्चों से मिल रही मेडम जी ने बारी बारी से सबके नाम पूछे। उनके नामों का अर्थ पूछते समझाते उन्हें याद आ गया अपना उत्सव। जब भी बेटे से नाम का मतलब पूछती वह तुतलाती भाषा में जवाब देता , " उत्छव यानी होली ओल दीवाली। "
अपनी आदतानुसार वह सारे बच्चों के बीच में बैठ जाती हैं । बच्चे पीछे पड़ जाते हैं, " मेम, कहानी सुनाओ ना।"उन्हें वीरों के किस्से सुनाते सेना का ज़िक्र छेड़ देती हैं । ध्रुव नामक सलोना सा बच्चा पूछ बैठा," मेम , सेना में जाने के लिया कितनी पढ़ाई करनी होगी ?" "खूब सारी" कहते हुए सुष्मिता सेना के बारे बताने लगती हैं, " सेना में जाने के लिए बहुत सारी पढ़ाई के साथ सेहत भी बनानी होती है। रोज़ दूध पीना व कसरत करना जरूरी है, समझे।" ध्रुव जोर से चिल्ला पड़ता है, "और बहादुर भी होना चाहिए, डरपोक नहीं।" सबसे कहती है, " अच्छा चलो प्रार्थना करके जल्दी से सोने वाले कपड़े पहन लो ।" सब हाथ जोड़ आँखें बंद करके सस्वर गाते हैं, " तन मन झुकाए तुम्हारी शरण में, संसार की हम ख़ुशी चाहते हैं।"
सब बच्चे कतार बना हॉल में जाते हैं।
सुष्मिता भी बच्चों के सारे कार्य कलाप देखने का लालच छोड़ नहीं सकती। सबको हँसी मज़ाक में समझाने लगती है, अरे अरे ,उल्टा पहन लिया ,बटन ठीक से लगाओ। " कपड़े बदलते ध्रुव की पीठ पर दायीं ओर बड़ा सा तिल देख चौक जाती हैं। उसी समय दौड़कर ऑफिस में जा रिकार्ड देखती हैं । दिल धड़क रहा था और हाथ काँप रहे थे। ध्रुव नाम देखते ही ऐनक साफ़ कर पढ़ने लगती है। ध्रुव महू छावनी से किसी को मिला था। उसका पता नहीं मिलने से वह तभी से इस अनाथालय में ही रह रहा है। अपना नाम उत्छव बता रहा था। समझ नहीं पाने से ध्रुव नाम रख दिया जाता है।
सुष्मिता जी बदहवास सी हॉल की ओर भागती हैं। ध्रुव को बार बार छाती से चिपटा चिल्ला पड़ती हैं ,
" मेरा बेटा उत्सव " सब बच्चे तालियाँ बजाते हैं।
हतप्रभ ध्रुव की समझ से परे है। वह मेम की गोद में उन्हें प्यार से निहारते हुए उनके आँसू पोछते पूछता है, " तो आप, क्या सच्ची मुच्ची की मेरी मम्मा हो ? " सुष्मिता चूमते हुए बोलती है , हाँ, मेरे बेटे तुम्हीं मेरे उत्सव हो, मेरी दिवाली और होली भी। और पता तुम्हारे पापा ना सेना में मेज़र थे।" तभी प्यून आकर एक लिफ़ाफ़ा थमाता है। सुष्मिता जी पढ़कर ख़ुशी से नाचने लगती हैं । बेटे से गले मिलते हुए बताती हैं ," उत्सव ,आपके मेजर पापा भी आ रहे हैं। पता है दुश्मन के सैनिकों ने उन्हें कैद कर लिया था।"
उत्सव शान से कहता है, " अच्छा ,,,वो अभिनन्दन अंकल जैसे।"
सरला मेहता

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दादी की परी
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