कविताअतुकांत कविता
बूंद बूंद बरसती रही
नीर भरी बदली
पार्क में भीगती रही
एक अकेली बेंच
घन घटा को रोककर
करने लगी मन की बात
सदाओं से यूं कह दो
भीगती क्यूं हो हर बार
संग बूंदों को लेकर
इतनी मचलती है क्यों
हंसकर बोली वह
नही समझोगी तुम
जज़्बातों की यह राह
पास खड़ा था द्रुम
खुद में था गुमसुम
भीगे थे सब पात पात
भीगी सी हर शाख
हाथ हिलाकर पकड़ा अम्बुद
क्यों बिखर रहा है बूंद बूंद
क्या उजड़ा है या बिगडा तेरा
जो तू इतना तेज दहाड़ा
जग को यूं क्यूं भरमाता
बरस बरस कर वह बोला
बूंदों संग छूटा मेरा साथ
सूना हूआ मन का आंगन
न बचा अब मेरा कुछ भी
सब कुछ मै खुद से हारा
मन की पीडा बहती रही
विरह वेदना भीगती रही
रीता सा जो मन था मेरा
वो तरबतर हुआ गहरा
शोभा गोयल
जयपुर